शक्ति उपासना का उत्तम मार्ग है श्रीदुर्गासप्तशती

शक्ति उपासना का उत्तम मार्ग है श्रीदुर्गासप्तशती

शक्ति उपासना का उत्तम मार्ग है श्रीदुर्गासप्तशती

शक्ति उपासना का उत्तम मार्ग है श्रीदुर्गासप्तशती

'शक्लृशक्तौ' धातुसे 'क्तिन्' प्रत्यय करनेपर 'शक्ति' शब्द सिद्ध होता है। कारण, वस्तु में जो कार्योत्पादनोपयोगी अपृथक्सिद्ध धर्मविशेष है, उसीको 'शक्ति' कहते हैं। श्रीदुर्गासप्तशती मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत तेरह  अध्याय का शक्तिमहात्म्यप्रदर्शक एक भाग है। जिसमें सभी पुरूषार्थों को  प्रदान करने वाली शक्ति के स्वरूप, चरित्र, उपासना तथा साधना के उपाय  आदि का सम्यक निरूपण किया गया है।      शक्तिकी उपासना के संबंध में जितने ग्रंथ प्रचलित हैं, उनमें सप्तशती का बहुत विशेष महत्व है। आस्तिक सनातनी बड़ी श्रद्धा से इसका पाठ किया करतें है और उनमें से अधिकांश का यह विश्वास है कि सप्तशती का पाठ प्रत्यक्ष फल प्रदान करता है। कुछ लोगों का कहना है- 'कलौ चण्डिविनायकौ' अथवा 'कलौ चण्डीमहेश्वरौ।

' इस कथन से भी विदित होता है कि कलियुग में चण्डी जी का विशेष महत्व है। और चण्डी जी के कृत्यों का उल्लेख सप्तशती मे ही विशेष सुन्दरता के साथ मिलता है। इस दृष्टि से भी इस ग्रन्थ की महत्ता सिद्ध होती है। कुछ लोग अपने-आप दुर्गासप्तशती की पुस्तक पढ़कर ही अनुष्ठान करने लगते हैं और इष्टसिद्धि न होनेपर भौंह चढ़ाकर कह बैठते हैं कि 'क्या रक्खा है, कलियुग में मन्त्रादि की सामर्थ्य ही नष्ट हो गयी है' तथा यों कहकर ये 'कलौ चण्डिविनायकौ' इस वाक्य को धोखे की बात बतलाते हैं, अतः इसके विषय में यहाँ कुछ कहना आवश्यक है ।

किस प्रकार अविच्छिन्न गुरुपरम्परा से सम्पन्न उपासक से श्रीदुर्गासप्तशती की विधिपूर्वक दीक्षा लेनी चाहिए। यदि दीक्षा विधान न बन सके तो उपदेश ग्रहण करके स्वयं उसके एक सहस्त्र पाठ करने चाहिए,और उसका दशांश होम, उसका दशांश दर्पण और उसका दशांश मार्जन तथा उसका दशांश ब्राह्मण भोजन करना चाहिए। तत्पश्चात पंचांग पुरश्चरण से मंत्र सिद्ध करना चाहिए। साथ ही नवार्ण मंत्र की दीक्षा या उपदेश ग्रहण कर वर्णलक्ष (नवलक्ष) जप करके होम, तर्पण, मार्जन, ब्राह्मण-भोजन कराकर पंचांग-पुरश्चरण द्वारा मंत्र सिद्ध करना चाहिए। इस प्रकार यदि अनुष्ठान किया जाय तो निस्सन्देह शीघ्र ही अभीष्ट-सिद्धि होगी।

पाठ करने वाला पुरुष अपने ब्राह्मकर्म में श्रद्धावान् और कुशल हो, फिर ब्रह्मचर्यादि नियमों का पालन करता रहे, तंत्रोक्त विधान के अनुसार स्तोत्र के पूर्वाङ्ग और उत्तराङ्ग को यथावत् जानकर उसका प्रयोग करें और एकाग्र होकर मंत्रार्थ का  निरन्तर चिंतन करते हुए नासाग्र- दृष्टि होकर सम्पुट लगाकर पाठ करें। मंत्रशास्त्र में सहस्र से कम संख्या के  श्लोक वाले स्तोत्र का पत्र निरपेक्ष कण्ठस्थ (बिना पन्ने हाथ में लिए) पाठ करने की आज्ञा है। और सप्तशतीस्तोत्र तो नामसे ही सात सौ श्लोक है। यदि श्लोक कंठ न हो तो पन्ने हाथ में रखने की आज्ञा है। तथापि पाठसमाप्तिपर्यन्त बीच में चित्त कहीं अन्यत्र न जाय, इसके लिए बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे स्पष्ट वर्णोच्चारण करते हुए पाठ करना चाहिए । यदि सब विधानों को यथावत् समझकर और जितेन्द्रिय रहकर यथाविधि अनुष्ठान करे  तो वह पराशक्ति का अनुग्रह अवश्य प्राप्त करेगा।

सप्तशती सात सौ श्लोकोंका संग्रह है और यह तीन भागों अथवा चरितों में विभक्त है। प्रथम चरित में ब्रह्माने योगनिद्राकी स्तुति करके विष्णुको जाग्रत कराया है और इस प्रकार जागृत होनेपर उनके द्वारा मधु-कैटभका नाश हुआ है। द्वितीय चरित में महिषासुर-वधके लिये सब देवताओं- की शक्ति एकत्र हुई है और उस पुञ्जीभूत शक्तिके द्वारा महिषासुरका वध हुआ है। तृतीय चरितमें शुम्भ-निशुम्भ- वधके लिये देवताओंने प्रार्थना की, तब पार्वती जी के शरीरसे शक्तिका प्रादुर्भाव हुआ और क्रमशः धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड और रक्तबीजका वध होकर शुम्भ-निशुम्भका संहार हुआ है।

इस कथानक को यदि ध्यानपूर्वक पढ़ा जाय तो कई महत्त्व की बातें आप-ही-आप विदित होगी । प्रथम चरित से हमें यह मालूम पड़ता है कि जगत्‌ का कोई भी कार्य अपनी प्रसुप्त शक्ति को जागृत किये बिना कभी नहीं हो सकता । स्वयं विष्णु भी क्यों न हों, परन्तु यदि उनकी शक्ति सोई हुई है तो वे कुछ कार्य नहीं कर सकते । फिर पाशव-शक्ति से बुद्धि-शक्ति की श्रेष्ठता से भी इस चरित्र में विदित है, क्योंकि मधु-कैटभ पशुबल में विष्णु का मुकाबला करते रहे परन्तु जब अहङ्कार में फूलकर वरदान देनेके लिये तैयार हो गये तब विष्णुने बुद्धि-शक्तिका प्रयोग करके उन्हींके वधका वर माँग लिया । इस चरित्रसे एक बात और भी विदित होती है, वह है वैष्णवों और शाक्तोंका अभेद । शक्ति ही यद्यपि सब कुछ मानी गयी है परन्तु वह आखिर विष्णु की ही शक्ति है । रहस्यत्रय में जहां महालक्ष्मी से अन्य शक्तियों की उत्पत्ति बतालायी गई है, वहां भी प्रकारान्तर से महा विष्णु की ही महत्ता प्रतिपादित होती है।
'कई लोग तीनों चरित्रोंको क्रमशः 'ऐं ह्रीं क्लीं' से सम्पुटित करके पढ़ा करते हैं। नवार्णमन्त्रमें ये तीनों अक्षर प्रधान बीजरूप हैं। जिस प्रकार नाद और बिन्दुसे (विद्युत्-अणुओं- के - electrons के - vibration और rotation से) संसारकी सृष्टि हुई है, उसी प्रकार षट्चक्रके स्नायुः तन्तुओंमें गूजनेवाली वर्णमालाके अविनश्वर शक्तिधाम अक्षरों के द्वारा न जाने क्या-क्या पैदा किया जा सकता है। 'ऐं ह्रीं क्लीं' उसी वर्णमाला के बड़े महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। यदि इन शब्दोंका जप हमारे अन्तरतम प्रदेश से हो तो ये अवश्य ही हमारे लिये कामधेनु बन सकते हैं। बोल-चालकी वाणीसे- वैखरी वाणीसे-इनका विशेष जप करते-करते ये हमारे हृदयमें बस जाते हैं और इस प्रकार अतीव लाभदायक बन सकते हैं। कई लोग इन बीजमन्त्रों से सम्पुटित न कर-
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥

सरीखे सप्तशतीके ही प्रधान श्लोकोद्वारा सम्पुटित करके उसका पाठ करते हैं। ऐसा करनेसे भी फल विशेष होता है, क्योंकि इस प्रकार सम्पुटवाले प्रधान श्लोक की १४०० आवृत्तियाँ आप-ही-आप हो जाती हैं और एक पाठ में कम-से-कम १४०० बार उस प्रधान विषयपर अपना ध्यान पहुँचता रहता है। कई लोग सप्तशतीका शृंखलित पाठ करते हैं जिसमें प्रतिश्लोकके आगे-पीछे प्रधान श्लोक न कहकर केवल श्रृंखलारूपसे दो श्लोकोंके बीचमें कह दिया करते हैं। इसी तरहके और भी कई विधान हैं। परन्तु सबसे प्रधान पाठ तो वही है जिसमें मन, वाणी और क्रिया तीनोंका सामञ्जस्य रहे । यदि पाठकर्ताकी क्रियाएँ असंयमपूर्ण हैं, मन इधर-उधर भटक रहा है और वाणीने शुद्धाशुद्ध सब कुछ निकलता जा रहा है तो लाभके बदले हानि भी हो सकती है।

यहां 'पराशक्ति' पद महालक्ष्मीका बोधक है, क्योंकि प्रधानिकरहस्यमें, जहां त्रिमूर्तिके उद्भव का प्रसङ्ग आता है, वहां 'सर्वस्याद्य महालक्ष्मीः' ऐसा स्पष्ट निर्देश है। यद्यपि महिषासुरका शमन करनेके लिए देवोंके तेजोंशसे संभूता अष्टादश भुजावली महालक्ष्मीका वर्णन आता है तथापि यह पराशक्ति महालक्ष्मी प्रकृतिरूपा है, और त्रिमूर्ति में परिगणित महालक्ष्मी प्रधानरहस्यमें कहे गए हैं 'श्री पद्मे० इत्यादि पद में उपस्थापित हैं। इन्हीं का तामसरूप महाकाली हैं तथा सात्त्विकरूप महासरस्वती हैं; और वह स्वयं ही त्रिगुणआत्मिका, सबमें व्यापक रूप से स्थित हैं।

                                                                                                 डॉ. कृष्ण मुरारी मणि त्रिपाठी

प्राध्यापक दर्शन विभाग

जो.म.गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी