अमृतवाणी

अमृतवाणी

अमृतवाणी

अमृतवाणी 

।। यतो धर्मस्ततो जयः ।। 
त्यक्त्वाधर्मं च लोभं च मोहं चोद्यममास्थिता।
युध्यध्वमनहङ्कारा यतो धर्मस्ततो जयः।।
(म०भा० भीष्मपर्व - 21/11)

अर्थ- अधर्म, लोभ तथा मोह का परित्याग करके, धर्मशील मनुष्य को उद्यम का आश्रय लेना चाहिए और अहंकार से रहित होकर धर्मविरोधी विपक्षियों से युद्ध करना चाहिए, क्योंकि जिस पक्ष में धर्म होता है विजयश्री भी उसी पक्ष की ही  होती है।