अमृतवाणी

अमृतवाणी

अमृतवाणी

अमृतवाणी

ज्ञानैर्मनो वपुर्वित्तै: नियमैरिन्द्रियाणि च।
नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेषवान्।।
(यशस्तिलकचम्पू - 08/412)

अर्थात - वस्तुत: तपस्वी वहीं है जिसका मन ज्ञान से, शरीर धन से एवं इन्द्रियां संयम से सुशोभित हैं। अपने तपस्वी के वेश से कोई तपस्वी नहीं होता है।