विश्वव्यापिनी मां दुर्गा

विश्वव्यापिनी मां दुर्गा

विश्वव्यापिनी मां दुर्गा

विश्वव्यापिनी मां दुर्गा

तव च का किल न स्तुतिरम्बिके
 सकलशब्दमयी किल ते तनुः।
निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयो
 मनसिजासु बहिःप्रसरासु च॥
इति विचिन्त्य शिवे! शमिताशिवे!
 जगति जातमयत्नवशादिदम्।
स्तुतिजपार्चनचिन्तनवर्जिता 
न खलु काचन कालकलास्ति मे॥

    (महामाहेश्वर श्री अभिनवगुप्त)

अर्थ- हे जगज्जननि! संसार मे कौन-सा ऐसा वाङ्मय है, जो तुम्हारी स्तुति नहीं है; क्योकि तुम्हारा शरीर तो सकल शब्दमय है। हे देवि!  मेरे मन मे संकल्प विकल्पात्मक रुप उदित होने वाली एवं संसार मे दृश्य रुप से सामने आने वाली सम्पूर्ण आकृतियों मे आपके स्वरुप का ही दर्शन होने लगा है। हे समस्त अशुभों का शमन करनेवाली कल्याणस्वरुपिणी शिवे! इस बात को विचारकर अब बिना किसी प्रयत्न के ही सम्पूर्ण चराचर जगत मे मेरी यह स्थिति हो गयी है कि मै समय का क्षणमात्र अंश भी तुम्हारी स्तुति, जप, अर्चना अथवा ध्यान से रहित नहीं है। अर्थात मेरे सम्पूर्ण सांसारिक आचार-व्यवहार तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न रुपों के प्रति यथोचित रुप से व्यवहृत होने के कारण तुम्हारी पूजा के रुप में परिणत हो गये है।’