पूर्णब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी का अवतार वेदसागर योग में हुआ है 

पूर्णब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी का अवतार वेदसागर योग में हुआ है 

पूर्णब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी का अवतार वेदसागर योग में हुआ है 

पूर्णब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी का अवतार वेदसागर योग में हुआ है 

सनातन धर्म अनुयायियों को वेद एवं धर्मशास्त्रदि पर श्रद्धा है इसलिए हम सनातनी मानते हैं कि हम सभी जीवों का जन्म होता है। लेकिन श्रीरामचन्द्र पूर्ण ब्रह्म और अनादि काल से है। इसलिए उनका जन्म नहीं होता , उनका अवतार होता है, परमात्मा भूलोक पर अवतरित हुआ करतें। हम जीवों के तरह उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिए हम जीवों से उनका जन्म भिन्न है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र एक अवतारी पुरुष है वे भगवान विष्णु का सातवां अवतार माने जाते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अपने जन्म की दिव्यता को बताते हुए अर्जुन से कहते हैं—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।। (गीता ४।६)

अर्थात्—‘मैं अजन्मा हूँ अर्थात् मेरा जन्म वास्तव में नहीं होता । मैं अविनाशी हूँ, अर्थात न तो मैं पैदा ही होता हूँ और न मरता ही हूँ । अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए और समस्त जीवों का स्वामी होते हुए भी मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ।’

जो ब्रह्म अगुण,अनंत और अनादि है, जिसका परमार्थवादी चिंतन करते हैं, जिसका निरूपण वेद नेतिनेति कहकर करता है, जो निजानंद निरुपाधि और अनूप है, जिसके अंश से अनेक शम्भु विरंचि और विष्णु भगवान् अवतरित होते हैं। वह प्रभु मन और वाणी से परे है, और उस की प्राप्ति ही मनुष्य जाति का परमध्येय है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में  जब वैसी परिस्थिति तथा ग्रहस्थितिय आयेंगी तभी रामावतार की सम्भावना है। सो वैसा काल आ गया। उसीको स्पष्ट करते हैं-

दो0-जोग लग्न ग्रह वार तिथि, सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्ष जूत, रामजन्म सुख मूल ॥190॥

इसकी व्याख्या करते हुए पं विजयानन्द त्रिपाठी जी कहते है -
जब श्रीरामावतार होता है तो वेदसागर नामक योग पड़ता है, कर्क लग्न होता है, कर्क चन्द्र और गुरु, कन्या के राहु, तुला के शनैश्चर, मकर के मंगल, मीनके केतु और शुक्र, मेष के सूर्य और वृष के बुध होते हैं, वार मङ्गल, नक्षत्र पुनर्वसु । ऐसी अनुकूल परिस्थिति में हरि अवतीर्ण होते हैं। चर की कौन कहे अचर में भी आनन्द का उद्रेक हो उठता है, क्योंकि रामजन्म सुख का मूल है।

सकल भये अनुकूल का भाव यह कि प्रकृति में महान् परिवर्तन होता है। पाँच ग्रह उच्च के होते हैं। पुनर्वसु नक्षत्र होने से यह पता लगता है कि नौमी को मीन के दशम अंश पर सूये रहे सो सूर्य्य एकाएक मेष के दशम अंश पर परम उच्च होने के लिये आ गये। इस भाँति सभी अनुकूलता हो गई। ऐसी परम अद्- भुत घटना रामावतार में ही होती है। परब्रह्म परमात्मा के सूय्ये कुल में अवतीर्ण होने से सूख्य की स्थिति स्वभावतः परम उच्च हो जाती है।'

चौ०-नवमी तिथि मधु मास पुनीता । सुकलपक्ष अभिजित हरि प्रीता ।।
मध्य दिवस अति सीतन घामा। पावन काल लोक विश्रामा ॥१॥

अर्थ-नवमी तिथि थी, और पवित्र चैत्र मास, शुक्ल पक्ष था और भगवान् को प्रिय अभिजित मुहूर्त मध्याह्न का समय, अत्यन्त शीत भी नहीं, कड़ी धूप भी नहीं। संसार में विश्रास योग्य, वह पवित्र समय था ।
पूर्णब्रह्म स्वयं कर्ता स्वप्रकाशो निरञ्जनः। निर्गुणो निर्विकल्पश्व निरिहः सञ्चिदात्मकः।। 4.

वेदसागरस्तव में कहा गया है - "कर्क के चन्द्र और गुरु, कन्या के राहु, तुला के शनि, मकर के मंगल, वृष के बुध, मेष के सूर्य, मीन के शुक्र और केतु- यह वेदसागर-योग है। हे भार्गव, वेदसागर में उत्पन्न होने वाला, पूर्व जन्म में पूर्ण ब्रह्म, स्वयं कर्ता, स्वप्रकाश, निरञ्जन, निर्गुण, निर्विकल्प निरीह, सच्चिदात्मा, गिराज्ञानगोऽतीत, इच्छानुकूल स्वरूप धारण करने वाला था। बिना घ्राण के सूँघता था, बिना नेत्र के देखता था,  बिना कान के सुनता था, और बिना वाणी के बोलता था। बिना हाथ के शुभाशुभ कर्म करता था। बिना पैर के चलता था ।

स्वरूप से रूपहीन होने पर भी सब कार्यों में समर्थ था। वही वेदत्रयी रूप था। त्रिगुण था। काल रूप भी वही था। चर और अचर तीनों लोक रूप भी वही था। महेंद्र देवता नाग किन्नर  पन्नग सिद्ध विद्याधर यक्ष गन्धर्व रुप भी वही था। राक्षस दानव मनुष्य बंदर अंडज सागर पक्षी वृक्ष पशु कीटादि पर्वत नदी सब उसकी कला है। मोहादिक क्रियाएं हैं। उसने इच्छा माया तीनों वेदों और क्रियाकलाप को बनाया।

 

लेखक                                                                                      डॉ. कृष्ण मुरारी मणि त्रिपाठी
प्राध्यापक दर्शन विभाग
श्री जो.म.गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी