जन्माष्टमी के घोर अन्धकार में हुआ दिव्य प्रकाश का उदय
भगवान् श्रीकृष्णा का दिव्य आविर्भाव अन्धेरे वर्षा भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी की अन्धेरी रात र्मे कंस की अन्धेरी कालकोठरी के अन्धकार में हुआ था ! क्या इस दिव्य जन्म का इस भौतिक अन्धकार से कोई विशेष संयोग है ? श्रीमद्भगवद्भीता में भी लिखा है कि जब अधर्म का अन्धकार का व्याप्त हो जाता है तब धर्म की स्थापना हेतु मैं दिव्य रुप में अवतरित होता हूं। क्या दिव्य धर्म की स्थापना के साथ अधर्म के इस अन्धकार का कोई विशेष संयोग है ? कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्तव्याकर्तव्य के विषय में अर्जुन की आँखों के सामने अन्धकार छा गया और तब उस अन्धकार में ही गीता का दिव्य ज्ञान प्रकट हुआ। क्या अज्ञान के इस अन्धकार के साथ दिव्य ज्ञान के प्रकाश का कोई नित्य सम्बन्ध है? क्या यह कोई ऐसी बात है कि घोर रात्रिके बाद ही दिन होता है, घोर अधर्म के पश्चात ही धर्म आता है, और घोर अज्ञान के पश्चात ही दिव्य ज्ञान का उदय होता है ?
हम तो संसार में यह देखते हैं कि मध्यरात्रि के घोर अन्धकार के पश्चात रात्रि की कालिमा कम होने लगती है, धीरे-धीरे उषा का आगमन होता और फिर सूर्यका उदय होता फिर मध्यरात्रि के जन्म का क्या रहस्य है? हम तो यह देखते हैं कि मनुष्य जब अधर्म के ओर प्रवृत्त होता है तब अधर्म ही बढ़ता है। फिर अधर्म मध्य रात्रि पाश्चत अधर्म का सत्ता क्षीण होने लगता है, तब धीरे-धीरे धर्म की उषाकाल आता है और फिर धर्म-सूर्य का भी उदय होता है। मानव समाज की उन्नति में भी हम यही क्रम देखते हैं, किसी जंगली जाति को जंगली हालत से एकदम उठकर सभ्य बना हुआ हुआ नहीं देखते ! फिर इस अधर्म में धर्म की स्थापना हेतु भगवान् के जन्म का क्या भेद है ? हम तो यह देखते हैं कि मनुष्य क्रम से ज्ञानार्ज्ज करता है -वर्ण माला से आरम्भ करके ही धीरे-धीरे अनेक विद्याओं को स्वायत्त का अधिकारी होता है। ऐसा तो कहीं नहीं देखते हैं कि घोर अज्ञान से उठकर कोई अकस्मात् पूर्ण ज्ञानी हो गया । इस अज्ञान की अवस्था में पूर्ण ज्ञानके प्रकाशका कौन सा अलौकिक प्रकार है। यह रहस्य, यह भेद, यह प्रकार भगवान् का अवतार है।
हम लोग भगवान् के इस अवतरण को नहीं समझते, अपने आरोहण को समझते हैं। इसीलिये जहाँ-जहाँ हमारे आप्त वचनों में 'अवतार' शब्द आता है वहाँ-वहाँ हम उसे अपने आरोहण की कल्पना से विकासवाद की दृष्टि से ही समझने का यत्न करते हैं और यही समझ पाते हैं कि शायद अवतार ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों को कहा गया है जो साधारण जन से शक्ति में, विद्या में, बुद्धि में , पराक्रम में, श्रेष्ठ होते हैं, अथवा अवतार उनको कहते हैं जिनमें साधारण जन में बिखरे हुए गुणों का समुच्चय और अत्यधिक विकास हुआ रहता है; और भगवान् श्रीकृष्ण या श्रीराम को इसी अर्थमें अवतार मान लेते हैं। परन्तु यह अवतार नहीं, आरोहण है। अवतार उसे कहते हैं जो नीचे उत्तर आता है। 'अवतार' शब्द का अर्थ तो यही है और आप्त- वचनों में यदि इस शब्द का प्रयोग यथार्थ है तो अवतार किसी महान् शक्ति का ऊपर से नीचे उतरना है। किसी महान् शक्ति के इस प्रकार नीचे उतरने यानी अवतार का ध्यान करने के पूर्व हमें यह देखना होगा कि हम जिसे आरोहण या विकास कहते हैं, वह क्या है ?
मनुष्य का आरोहण-मनुष्य की शक्तियों का विकास एक संग्राम है। हर बात में मनुष्य अपूर्ण है। हर बात में पूर्ण होने के लिये वह अन्दर की कमजोरियों से तथा बाहर के शत्रुओं से सदा ही लडता-झगड़ता रहता है। मनुष्य बुद्धिमान् प्राणी है बुद्धि ही उसकी विशेषता है । इसलिये बुद्धि का ही उदाहरण लेकर इस विषय को देखें। संसारमें जितने विद्वान् और बुद्धिमान् मनुष्य नाना प्रकार की विद्यायों और कलाओं तथा वैज्ञानिक अनुसन्धानों में लगे हुए हैं वे सब अपनी और सम्पूर्ण मनुष्य समाज की बुद्धि को उन्नत कर रहे हैं और इसी तरह उन्नति करते हुए चले जायेंगे। बुद्धि की यह उन्नति सत्यकी और वैज्ञानिकों को यह अनुभव होता है कि बुद्धि थक जाती है, अनुसन्धान का क्रम आगे बढ़ाने में असमर्थ होती है और अपना अहंभाव भूलकर शून्य-सी हो जाती है।
भगवान् के जन्म- कर्मकी दिव्यता एक अलौकिक और रहस्य मय विषय है, इसके तत्त्वको वास्तव में तो भगवान् ही जानते हैं, अथवा यत्किञ्चित् उनके वे भक्त जानते हैं, जिनको उनकी दिव्य-मूर्तिका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ हो; परन्तु वे भी जैसा जानते हैं कदाचित् वैसा कह नहीं सकते । जब एक साधारण विषय को भी मनुष्य जिस प्रकार अनुभव करता है उस प्रकार नहीं कह सकता, तब ऐसे अलौकिक विषय को कोई कैसे कह सकता है? भगवान् के जन्म-कर्म तथा स्वरूप की दिव्यता के विषय में भगवान् ने गीता में स्वयं कहते हैं -
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। (गीता अ०४। १)
हे अर्जुन ! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है, इसप्रकार जो पुरुष तत्वसे जानता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।
इस रहस्य को नहीं जानने वाले लोग कहा करते हैं कि निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का साकाररूप में प्रकट होना न तो सम्भव है और न युक्तिसंगत ही है। वे यह भी शङ्का करते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वत्र समभाव से स्थित, सर्वशक्तिमान् भगवान् पूर्णरूप से एक देश में कैसे प्रकट हो सकते हैं? और भी अनेक प्रकार की शङ्काएँ की जाती वास्तव मे ऐसी शङ्काओं का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जब मनुष्य-जीवन में इस लोक की किसी अद्भुत बात के सम्बन्ध में भी बिना प्रत्यक्ष ज्ञान हुए उस पर पूरा विश्वास नहीं होता तब भगवान् के विषय में विश्वास न होना आश्चर्य अथवा असम्भव नहीं कहा जा सकता। भौतिक विषय का तो उसके क्रियासाध्य होने के कारण विज्ञान के जानने वाले किसी भी समय प्रकट करके उस पर विश्वास करा भी सकते हैं। किन्तु परमात्मा सम्बन्धी विषय बड़ा ही विलक्षण है प्रेम और श्रद्धा से स्वयमेव निरन्तर उपासना करके ही मनुष्य इस तत्त्व का प्रत्यक्ष कर सकता है। कोई भी दूसरा मनुष्य अपनी मानवी शक्तिसे इसे प्रकट करके नहीं दिखला सकता। भगवान् ने कहा है-
भक्त्या त्वनन्याया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ।। (गीता ११।५४)
हे श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन ! अनन्यभक्ति करके तो इस मैं प्रकार प्रत्यक्ष दर्शन देखने के लिए और तत्त्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ।
विचार करने पर यह प्रतीत होगा कि ऐसा होना युक्ति संगत ही है। प्रह्लादको भगवान्ने खम्भमें से प्रकट होकर दर्शन दिये थे। इस प्रकार भगवान् के प्रकट होने के अनेक प्रमाण शास्त्रों में विभिन्न स्थलों पर मिलते हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा तो असम्भव को भी सम्भव कर सकते हैं, फिर यह तो सर्वथा युक्तिसंगत है। भगवान् जब सर्वत्र विद्यमान हैं तब उनका स्तम्भमें से प्रकट हो जाना कौन आश्वर्य की बात है? यदि यह कहें कि निराकार सर्वव्यापक परमात्मा एक देश में पूर्णरूप से कैसे प्रकट हो सकते हैं तो इसको समझाने के लिये हम अग्नि का उदाहरण सामने रखते हैं, यद्यपि यह सम्पूर्णरूप से पर्याप्त नहीं है क्योंकि परमात्मा के सादृश्य व्यापक वस्तु अन्य कोई है ही नहीं जिसकी परमात्मा के साथ तुलना की जा सके।
डॉ. कृष्ण मुरारी मणि त्रिपाठी
प्राध्यापक, दर्शन विभाग
श्री जो.म.गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी
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