ईश्वरावतार के पाँच कारण

Aug 26, 2024 - 06:27
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ईश्वरावतार के पाँच कारण

एक जिज्ञासा होसकती है कि निराकार-निर्गुण तत्त्व क्या आकार और गुण को स्वीकार करके मानवदेह धारण कर सकता है ? इसका उत्तर भक्तिशास्त्र देता है और कहता है-"हाँ ।" जब श्रीरामकृष्णदेव से किसी ने पूछा कि वह निर्गुण-निराकार अपने को साढ़े तीन हाथ के शरीर में कैसे सीमित कर सकता है, तो उन्होंने कहा-जो ईश्वर सारे संसार की रचना करता हुआ असंख्य रूपों की सृष्टि करता है, क्या वह अपने स्वयं के लिए एक रूप का निर्माण नहीं कर सकता ? यदि ईश्वर को सर्वसमर्थ मानते हो तो उसका एक रूप ग्रहण करना भी तो उसी सामर्थ्य के अन्तर्गत आता है। यदि पूछा जाय कि वह रूप क्यों ग्रहण करता है, तो उसका उत्तर प्रस्तुत श्लोकों में दिया गया हैं-

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।(गीता-४/७-८)

यहाँ पर ईश्वर के अवतरित होने के पाँच कारण बताये गये हैं- (१) धर्म की ग्लानि, (२) अधर्म का अभ्युत्थान, (३) सज्जनों की रक्षा, (४) दुष्कर्मियों का विनाश और (५) धर्म का संस्थापन । इनमें प्रथम दो कारण उस प्रश्न का उत्तर हैं, जिसमें पूछा गया है कि ईश्वर कब अवतार लेता है। शेष तीन कारण ईश्वर के अवतरण का हेतु प्रदर्शित करते हैं ।

भगवान् कृष्ण धर्म की ग्लानि और अधर्म का उत्थान की बात कहते हैं, तो इनमें से एक ही कारण वताने से क्या नहीं हो सकता था, ऐसा प्रश्न उठाया जा सकता है। इतना कहना ही तो पर्याप्त था कि धर्म की ग्लानि होने पर मैं अपने को प्रकट करता हूँ ? इसका उत्तर यों कहकर दिया जाता है कि धर्म की ग्लानि तो न्यूनाधिक सव समय बनी रहती है, पर सभी समय तो ईश्वर अवतार नहीं लेता । लेकिन जिस समय अधर्म वहुत वढ़ जाता है और धर्म को दवा देता है, तब ईश्वर के अवतरण की आवश्यकता होती है। अधर्म का उत्थान यह सूचित करता है कि धर्म की ग्लानि कितनी मात्रा में हुई । न तो केवल धर्म की ग्लानि ईश्वर को रूप लेने के लिए वाध्य कर सकती है और न केवल अधर्म की वृद्धि ही। पर जव ये दोनों कारण मिल जाते हैं और धर्म अधर्म के द्वारा दवा दिया जाता है, तव ईश्वर को आने के लिए विवश होना ही पड़ता है। त्रेतायुग में रावण का उत्कर्ष अधर्म का उत्थान सूचित करता है और महाराज दशरथ तथा अन्य मुनिगण धर्म की ग्लानि प्रदर्शित करते हैं। दशरथ धार्मिक तो थे, पर कैकेयी रूप काम के आगे उनकी कुछ न चली। विश्वामित्र विद्याएँ तो सब जानते थे, पर स्वयं उनका उपयोग न कर पाने की विवशता उनके जीवन में विद्यमान थी। ऋषि-मुनिगण धार्मिक तो थे, पर राक्षसों से वे दबे हुए थे । यह धर्मग्लानि का उदाहरण है। इसी प्रकार द्वापर युग में कंस, दुर्योधन, शकुनि ये सव अधर्म की वृद्धि के उदाहरण हैं तथा भीष्म-द्रोण-धृतराष्ट्र आदि धर्मग्लानि के । जब ये दोनों कारण एक साथ जुड़ते हैं, तब ईश्वर को बाध्य होकर रूप धारण करना पड़ता है।

           हरेकृष्ण पागल 

           (पूर्व प्रधानशिक्षक)

गोटषण्डा,प्राथमिक विद्यालय,

मोहनपुर, पश्चिम मेदिनीपुर

पश्चिम बंगाल

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