भारतीय ज्ञान परम्परा की दुर्लभ विशेषताएं प्राचीनता,सातत्य एवं विपुलता: प्रो.बलराम शुक्ल
हिन्द भास्कर, गोरखपुर
दिनांक 4 /1/ 2025 को संस्कृत एवं प्राकृत भाषा विभाग में भारतीय ज्ञान परम्परा में फारसी का अवदान विषयक अन्तर्राष्ट्रीय परिसंवाद की अध्यक्षता करते हुए माननीय कुलपति प्रो पूनम टण्डन ने भारतीय संस्कृति की व्यापकता को परिभाषित किया तथा कहा कि आदिकाल से अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृतिकरण भारत में हुआ है। प्राचीन काल से ही भारत के विश्वविद्यालयों में छात्रो के अध्ययन की रुचि रही। ईरान से आए प्रो. बलराम शुक्ल ने भारतीय ज्ञान परम्परा में फारसी का अवदान विषय पर वक्तव्य दिया। आप ईरान के तेहरान में भारतीय दूतावास के विवेकानन्द सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक है। कृतकार्य आचार्यों का स्मरण करते हुए कहा भारतीय ज्ञान परम्परा के कारण ही भारत विश्व मे श्रेष्ठ है। इसकी तीन दुर्लभ विशेषताएं प्राचीनता, सातत्य, विपुलता हैं। अन्य सभ्यताओं के अध्ययन के लिए भी भारतीप ज्ञान परम्परा उपयोगी है, इसने भी दूसरे स्रोतों से अपने को समृद्ध किया। वि वि के ध्येय वाक्य “आनो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” का प्रमाण दिया। समृद्धि का मुख्य कारण वाह्य श्रोतों के आदान से भी है।
भारत ईरान में अनेक प्रकार से प्रभावित है । हखामंशी राजवंश को सखा मनीषा बताया जो भारतीय सम्बन्धों को बताता है ।पंचतन्त्र (कर्टक और दमनक )के नाम पर अनुवाद कलीलः दिमनः के नाम से प्रसिध् है तथा तीसरी शताब्दी में अनेक संस्कृत पुस्तकों का अनुवाद हुआ। अब्बासियों ने भी संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में कराया। व्याकरण एवं दर्शन में अनेक ग्रन्थ अनूदित हुए। फारसी ने भारतीय ज्ञान परम्परा को मुख्य दो रूपों में प्रभावित किया। एक प्रचार के लिए दरवाजे का काम किया दुनिया के लिए प्रस्तुत किया। भारतीय ज्ञान की महत्ता पर फारसी मे अनेक कहानियां मिलती है। लगभग 300 पुस्तकें अनूदित हुई। अनेक मूल ग्रन्थों के न होने पर भी फारसी में अनूदित बहरूल हयात जैसी फारसी अनुवाद आयुर्वेद का ग्रन्थ है। उपनिषदों की परम्परा को बनाए रखने का श्रेय भी फारसी को है शिर्रे अकबर नाम से। जिसका तात्पर्य है महान रहस्य। नवजागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में में भी इसकीमहती भूमिका भी है।
दूसरा , फारसी में मूल ज्ञान का उत्पादन जबाने रस्मी के कारण अनेक भारतीय लोगो ने फारसी में लिखे, जो भारत की ज्ञान परम्परा की अखण्डता के लिए आवश्यक है। हमारा भारतीय इतिहास काल से मुक्त होने का कार्य करता है। इतिहास लिखने वाले पहले मुकर्रिब ईरान से ही आए। इसके बिना हम भारतीप ज्ञान परम्परा को पूर्ण नही जान सकते। ताजुल महाशिर प्रथम भारत में लिखा जाने वाला इतिहास था। भारत में भी फारसी कविताएं महत्वपूर्व हुई। 700 भारतीय फारसी कवि थे। फारसी के सारे कोष पहले भारत में लिखे गए। फारसी को भारत में ही सम्पूर्ण सम्मान मिला। हिन्दुस्तान एक नहीं सौ देश हैं अपने आप में ऐसे फारसी के लोग कहते हैं।
विशिष्ट वक्ता, प्रो. रामवन्त गुप्त, निदेशक अन्तर्राष्टीय प्रकोष्ठ दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर,विश्वविद्यालय ने अपने वक्तव्य में वर्तमान में कैसे ईरान से जुड सकते है इस पर चर्चा की। और कहा कि विश्वविद्यालय के लिए यह अन्तराष्टीयकरण अत्यन्त उपादेय सिद्ध होगा।
सारस्वत वक्ता के रूप में नेशनल पीजी कॉलेज बड़हलगंज के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ योगेन्द्र कुमार ने भी वक्तव्य दिया। विभागाध्यक्ष प्रो राजवंत राव ने अतिथियों का स्वागत करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा को सहिष्णु और समावेशी बताया। उन्होंने कहा कि हमारी आत्मसात करने की प्रवृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। आत्मसात करने में विवेक का होना आवश्यक है अन्यथा वह बौद्धिक दासता मानी जाती है। भारत की ईरान से रिश्तेदारी है। आपने बोगजगोई अभिलेख की चर्चा की। ईरान के अश्वों की चर्चा की। देवी देवताओं के स्वभाव वैदिक देवताओं से मिलते हैं। रुद्र शिव का ईरान सबसे वडा सेन्टर है। विरासत जैसे शब्दो का उदाहरण देते हुए महत्ता व्यक्त की। फिरोज शाह तुगलक के अनुवाद की चर्चा की और कहा हमारी ईरान की एक साझी संस्कृति है।
कार्यक्रम के संयोजक विभागीय समन्वयक डॉ देवेंद्र पाल ने अतिथि परिचय कराया, डॉ सूर्यकान्त त्रिपाठी ने संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ रंजनलता ने किया, इस अवसर पर विभाग सहित उर्दू, दर्शन, इतिहास, अंग्रेजी, विधि तथा अन्य विभागों के शिक्षकों की उपस्थिति रही तथा शोध छात्र एवं स्नातक / परास्नातक छात्र उपस्थित रहे।
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