काहे भौजी जायेलु नइहरवा, छोड़ के होली के बहार.‘फगुआ’ बिना अधुरी है होली

बिहारी बोलिया ना बोल पपीहा मोर अंगनवा ना पिया मोर अंगनवा लेती गोदिया उठाई
पनिया भरन जान जो जुलम डंका ना बजाओ निहुरी घड़ा जानी भरहु छबीली लचक जाए तोर पतली कमरिया कटीली
हिन्द भास्कर
खजनी।
रुद्रपुर खजनी हनुमान मठ पर फगुहारों ने ढोल झाल के साथ चौताल डेढ़ताल बैसवाड़ा उलारा आदि गीतों को गाकर फगुनहटा बेआर बहाया। विलुप्त हो रहे परंपरागत होली गीतों को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से गांव में बचे कुछ पुराने फगुआ गीतों को गाने वालों को जुटाकर ग्रामसभा रुद्रपुर के हनुमान मठ खजनी में आधी रात तक होली गीत गाए गए।
विमलेश त्रिपाठी आयोजन ने बताया-तकरीबन एक दो दशक पहले फागुन महीने में गांवों में समूह बनाकर गाए जाने वाले फगुआ गीत व गाने वालों की टोलियां अब बहोत कम दिखाई दे रही। ये अब पुराने दिनों की बातों के साथ सिर्फ यादें बनकर रह गई है। गांवों की मिट्टी से भारतीय संस्कृति पर आधारित फगुआ गीतों की धुन अब कही-कही सुनाई देती है। हमारी लोक परंपरा को समाहित किए हुए ये फगुआ गीत अब लगभग विलुप्त होने के कगार पर है।
गोरख राम त्रिपाठी ने बताया-कुछ वर्ष पूर्व फागुन महीने की शुरुआत होते ही गांवों में ढोल नगाड़े की धुन पर फगुआ गीत गाने वालों की लंबी टोलियां दिखाई पड़ती थी। कई दर्जन लोगों की टोलियां प्रमुख प्रमुख स्थानों के साथ दरवाजे दरवाजों पर फगुआ गीत गाते देखे जाते थे। इस अवसर पर सारे द्वेष कटुता को भूल अपने आप को एक टोली में समाहित कर लोग आपसी भाईचारा का संदेश देते थे। इसी के साथ पीछे की पीढि़यों को भी एक मिल जुलकर रहने वाले संदेश का यह फगुआ आमंत्रण देता था। वहीं इन गीतों में भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक तथा पारंपरिक सछ्वाव रीति-रिवाजों का झलक देखने को मिलता था। ये गीत हमारी लोक संस्कृति की पहचान होते थे, लेकिन इधर विगत कई वर्षों से गांवों में ढोल मजीरे की आवाज बहुत कम सुनने व दिखने को मिल रही है। महज होली के रस्म अदायगी के तौर पर यह गीत कहीं कहीं सुनने को मिलते हैं। रात भर सुनाई देने वाले ये फगुआ गीत अब पुराने दिनों की बात हो गए हैं।
विजय कुमार त्रिपाठी ने बताया -
आज के आधुनिक जमाने में ऐसे गायको के ना तो पूछ है और ना ही युवाओं की रुचि है । अब गांव में बचे एक्का दुक्का लोग ही ऐसे कार्यक्रमों को महत्व देते हैं जबकि इस विरासत को बचाना हम सभी का फर्ज है, ऐसा ना हो की कहीं ए विधा विलुप्त हो जाय । पहले के समय में बसंत पंचमी के दिन सम्मत गाड़ने के दिन से ही फगुआ गीतों की शुरुआत हो जाती थी जिसमें ढोल नगाड़े टिमकी का बड़ा महत्व होता था लेकिन इस समय टिमकी नगाड़े बजाने वाले हैं ही नहीं किसी तरीके से गांव में भजन कीर्तन में ढोल बजाने वाले लोग हैं और उन्हीं से काम चल रहा है।
गिरीश चन्द्र त्रिपाठी - ने बताया इस चकाचौंध दुनिया में डीजे को प्रमुखता देकर उसके कानफोड़ू आवाज पर थिरकने वालों के बीच इस तरीके से परंपरागत होली गीत हो रहा है तो यह बड़ी बात है । ऐसी विलुप्त होती विधाओं को बचाने, इसका संरक्षण व संवर्धन करने के लिए पूरे समाज को आगे आना चाहिए।
कार्यक्रम में फगुहारों,गोरख राम त्रिपाठी,दलदल राम त्रिपाठी,बृज किशोर राम त्रिपाठी,प्रेम शंकर मिश्र पूर्व प्रधान, महामाया राम त्रिपाठी,रुद्र प्रताप सिंह,राहुल त्रिपाठी ग्राम प्रधान,हरिनारायण शर्मा,नथुनी पांडेय, मनोज कुमार त्रिपाठी, विजय कुमार त्रिपाठी, श्यामानंद त्रिपाठी,बिल्लू राम त्रिपाठी, गंगेश्वर राम त्रिपाठी,प्रिंस शुक्ला, उत्तम मिश्रा,मंगलम भरतीया,गया प्रजापति,राम भवन चौहान,इंद्रेश चौहान,दुर्बल चौहान,लालदेव प्रसाद,अर्जुन जायसवाल,अजीत राम त्रिपाठी जोगी, डबलू राम त्रिपाठी,ऋषभ त्रिपाठी,वृषभ त्रिपाठी,हाजी शहाबुद्दीन,मौलाना औरंगज़ेब, रवि शंकर त्रिपाठी,अश्विनी राम त्रिपाठी,सुधीर त्रिपाठी,निखिल कुमार गौड़,संजय चौहान,अमीत चौहान,राजगुरु गुप्ता, सदानंद यादव एवं अन्य उपस्थित श्रोतागण।
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