हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ है आचार्य रामचंद्र तिवारी: शिव प्रताप शुक्ल

Oct 4, 2024 - 22:12
Oct 5, 2024 - 05:37
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हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ है आचार्य रामचंद्र तिवारी: शिव प्रताप शुक्ल

(दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर के संवाद भवन में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम दिन दिनांक 04 अक्टूबर 2024 की उद्घाटन सत्र से द्वितीय तकनीकी सत्र के समापन सत्र तक की मिली जुली रिपोर्ट)

भारतीय परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोच्च : शिवप्रताप शुक्ल

साहित्य की आत्मा होती है आलोचना : प्रो. पूनम टंडन

आचार्य रामचंद्र तिवारी का जीवन व लेखन प्रेरणा का स्रोत : प्रो.पूनम टंडन

आचार्य रामचंद्र तिवारी का जीवन व लेखन नई पीढ़ी के शिक्षकों के लिए एक चुनौती : प्रो.पूनम टंडन

आचार्य रामचंद्र तिवारी तत्वान्वेषी कोटि के एक सारस्वत आलोचक हैं: प्रो० विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

आचार्य रामचंद्र तिवारी कभी किसी शिविर में शामिल नहीं हुए : प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

हिन्द भास्कर, गोरखपुर।

दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में आयोजित 'हिन्दी भाषा और साहित्य: आलोचना का मूल्य और डॉ. रामचंद्र तिवारी' विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए हिमाचल प्रदेश के श्री राज्यपाल माननीय शिवप्रताप शुक्ल ने कहा कि आचार्य रामचंद्र तिवारी ने विद्यार्थियों में साहित्य की बुनियादी समझ विकसित की. उनकी शिष्य परंपरा इसका उदाहरण है. उनका कृतित्व विराट है.

उन्होंने कहा कि ब्रह्मलीन संत महंत दिग्विजयनाथ जी तथा सुरति नारायण मणि त्रिपाठी जी की प्रेरणा से आजादी के बाद गोविन्दबल्लभ पंत जी ने गोरखपुर विश्वविद्यालय की नींव रखी. अपने स्थापना काल से ही यह विश्वविद्यालय ज्ञान का कीर्तिमान रचता आ रहा है. इसने देश को बड़े चिंतक व मनीषी दिए हैं, जिनमें से एक हैं आचार्य रामचंद्र तिवारी. वह हिन्दी साहित्य के कीर्ति-स्तम्भ हैं.

उन्होंने कहा कि यशस्वी आचार्य रामचंद्र तिवारी के जन्म शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करते हुए केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के सहयोग से आयोजित संगोष्ठी हेतु बधाई देता हूं. उन्होंने कहा कि भारतीय परम्परा में गुरु का स्थान सर्वोच्च है. आचार्य रामचंद्र तिवारी जी के शिष्यों की समृद्ध परंपरा है, जो सफलता व सार्थकता के शीर्ष पर हैं. उनमें से कई आज इस सभागार में मौजूद भी हैं.

उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में विद्यार्थी पुस्तकों व शिक्षकों से दूर होते जा रहें हैं. इससे उनकी विश्लेषण क्षमता कम होती जा रही है. इंटरनेट से यह कमी पूरी नहीं हो सकती. ज्ञान को ऊपर से नीचे लाने का काम गुरु ही करता है. रामशंकर शुक्ल 'रसाल', गोपीनाथ तिवारी आदि से लेकर आजतक हिन्दी विभाग की समृद्ध परम्परा रही है, जिसके मध्यबिंदु पर खड़े हैं आचार्य रामचंद्र तिवारी. यह विभाग राष्ट्र निर्माण की भूमिका में योगदान देने में हेतु सदैव सक्षम रहा है.

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. पूनम टंडन ने कहा कि यह एक ऐतिहासिक क्षण है. हम आचार्य रामचंद्र तिवारी की जन्म शताब्दी और विश्वविद्यालय की हीरक जयंती एकसाथ मना रहे हैं. उन्होंने कहा कि आलोचना, साहित्य की आत्मा होती है. आचार्य रामचंद्र तिवारी की आलोचना, केवल रचना का विश्लेषण नहीं है. वह साहित्य को लोकमंगल के रूप में देखने और समाज की आवश्यकता के अनुसार मूल्यांकन करना उपयुक्त मानते थे.

उन्होंने कहा कि उनका जीवन व चिंतन आज भी प्रेरित करता है. हमें गर्व है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय से उनका गहरा संबंध रहा है.

उन्होंने कहा कि मैं आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी में आचार्य रामचंद्र तिवारी की छवि देखती हूँ. हमारे विश्वविद्यालय की गौरवशाली परम्परा में आचार्य रामचंद्र तिवारी का जीवन एवं लेखन वर्तमान युवा शिक्षकों के लिए एक सकारात्मक चुनौती है.

उद्घाटन सत्र के मुख्य वक्ता और साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष पद्मश्री प्रो.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने संबोधन में कहा कि दूर्वादल रौदे जाने के बाद, सूख जाने पर भी अपनी ही जीवनी शक्ति से जैसे फिर हरे हो जाते हैं वैसे ही आचार्य रामचंद्र तिवारी जी तमाम संघर्षों के बाद भी बारंबार उठ खड़े होते थे. उन्होंने कहा कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं और कुछ लोग महानता अर्जित करते हैं. आचार्य रामचंद्र तिवारी जी दूसरे कोटि के विद्वान थे. उन्होंने अपने श्रम और लगन से ऊंचाई हासिल की.

उन्होंने कहा कि आचार्य रामचंद्र तिवारी घोर यथार्थवादी थे. एक बार मैं उनसे घर बनवाने के सिलसिले में कुछ उधार रुपए मांगने गया तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि 'देखो विश्वनाथ,उतना ही रुपया दूंगा, जितना तुम न भी लौटा सको तो मेरा तुम्हारा संबंध खराब न हो.'

उन्होंने कहा कि आचार्य रामचंद्र तिवारी तत्वान्वेषी कोटि के आलोचक थे. उनका अंतः प्रेरणा से किया गया लेखन उत्कृष्ट कोटि का है. उन्होंने कहा कि आचार्य रामचंद्र तिवारी किसी शिविर में शामिल नहीं हुए. मैं उन्हें एक कर्ममय सारस्वत आलोचक मानता हूं.

उद्घाटन सत्र के विशिष्ट अतिथि एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक प्रो. सुनील बाबूराव कुलकर्णी ने अपने संबोधन में कहा कि मैथिलीशरण गुप्त और आचार्य रामचंद्र तिवारी का उद्देश्य एक ही है. वे दोनों, इस धरती को ही स्वर्ग-सा सुंदर बनाने के लिए जीवन-भर प्रयासरत रहे. उन्होंने कहा कि किसी शिक्षक के लिए यह बहुत बड़ा सम्मान है कि जिसका छात्र साहित्य की प्रतिनिधि सभा का अध्यक्ष रहा हो और पद्मश्री से सम्मानित किया गया हो. आचार्य रामचंद्र तिवारी जितने बड़े साहित्यकार थे उतने ही बड़े मनुष्य भी थे. उनकी साधना एवं परिश्रम अनुकरणीय है. चुंकि वह किसी खेमे या शिविर में शामिल नहीं हुए इसलिए उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप महत्व नहीं दिया गया. उन्होंने सभा के समक्ष यह ऐलान भी किया कि केंद्रीय हिंदी निदेशालय की 'भाषा' पत्रिका आचार्य रामचंद्र तिवारी पर एक विशेषांक निकालेगी.

उद्घाटन सत्र का स्वागत वक्तव्य हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. कमलेश कुमार गुप्त ने दिया. संगोष्ठी के संयोजक प्रो. विमलेश कुमार मिश्र ने मंच संचालन किया. कला संकाय के अधिष्ठाता प्रो. राजवंत राव ने विधिवत आभार ज्ञापन किया.

इस सत्र में केंद्रीय हिंदी निदेशालय से प्रोफेसर सुरेंद्र दुबे, सचिव श्री नत्थूलाल जी, के अतिरिक्त प्रो. चितरंजन मिश्र प्रो. नंदकिशोर पांडे प्रो. श्रीराम परिहार, प्रो.आर एस सर्राजू, प्रो.गोपाल प्रसाद, प्रो. करुणाकर राम त्रिपाठी प्रो. आलोक गोयल प्रो. उमेश नाथ त्रिपाठी, प्रो. शरद मिश्रा, प्रो. अजय गुप्ता, प्रो. अनुभूति दुबे, डॉ. उपेंद्र तिवारी, प्रो. नंदिता सिंह, प्रो. विजय कुमार श्रीवास्तव, प्रो. हर्ष कुमार सिन्हा,प्रो.सुनीता मुर्म, प्रो.जेबी पांडे, डॉ.संजयन त्रिपाठी, प्रो. विपुला दुबे प्रो. एसएमटी त्रिपाठी, प्रो. प्रेमसागर नाथ त्रिपाठी, प्रोफेसर सुग्रीव तिवारी सहित शहर के तमाम साहित्य प्रेमी, शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित रहे.

डॉ. श्वेता भट्ट की पुस्तक हुआ विमोचन

उद्घाटन सत्र के दौरान डॉक्टर श्वेता भट्ट की चौथी पुस्तक 'आत्मनिर्भर भारत@विकसित भारत' का विमोचन हुआ. डॉ श्वेता बुद्ध पीजी कॉलेज, कुशीनगर के वाणिज्य विभाग में सहायक आचार्य हैं.

    कुछ  इस तरह रहा राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रथम तकनीकी सत्र

कभी आंखें नम हुई तो कभी उत्साह से चेहरा खिल उठा

प्रथम तकनीकी सत्र का विषय 'रामचंद्र तिवारी - स्मृति सत्र' पर केंद्रित रहा. इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. रामदेव शुक्ल ने किया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि रामचंद्र तिवारी एक पूर्ण शिक्षक थे. उनके अध्यापन का विशेष पक्ष यह था कि वह सोचते हुए अध्यापन करते थे इस पद्धति की विशेषता यह है कि कई बार हम अपने ही पढ़ाए हुए विषय को जब दोबारा पढाते हैं तो उसमें नई व्यंजना की तलाश होती है. तिवारी जी की प्रेरणा से मुझे इस पद्धति का लाभ सदैव मिला.

इस स्मरण सत्र की विशेष बात यह रही कि मंचासीन सारे विद्वान आचार्य रामचंद्र तिवारी के की शिष्य परंपरा में रहे हैं. इस सत्र को प्रोफेसर अनंत मिश्र, प्रोफेसर के सी लाल, प्रोफेसर अमरनाथ शर्मा, प्रोफेसर जनार्दन, नवनीत मिश्र एवं आचार्य रामचंद्र तिवारी के सुपुत्र प्रोफेसर धर्मव्रत्त तिवारी ने भी संबोधित किया. 

इन सब विद्वान आचार्य ने एक से एक विशिष्ट संस्मरण सुनाया, जिससे आचार्य रामचंद्र तिवारी की ऊंचाई, निष्ठा और विशद अध्ययन का पता चलता है. इन विद्वानों ने बताया कि आचार्य रामचंद्र तिवारी मूलतः बेहद संवेदनशील शिक्षक, लेखक व आलोचक थे. वह नारियल की तरह बाहर से तो कठोर किंतु अंदर से बेहद मुलायम थे. उनकी शिष्य वत्सलता जग जाहिर है. वह एक महान शिक्षक थे, जिन्होंने पढ़ाने एवं आलोचना कर्म के साथ-साथ शिष्यों का भी निरंतर पोषण एवं चिंतन किया.

उनकी यह एक बड़ी विशेषता थी कि वह अपने शिष्यों को हमेशा आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाते थे. वह अपने शिष्यों से स्पष्ट करते थे कि परिश्रम का कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता. उन्होंने अपने जीवन का हर क्षण साहित्य को समर्पित किया. वह कभी किसी तरह की खेमेबाजी या गोलबंदी में नहीं रहे. एक शिक्षक एवं आलोचक के रूप में वह सदैव तटस्थ एवं कठोर रहते थे. सादगी से परिपूर्ण उनका जीवन आज के समय में एक आदर्श है. उन्होंने साहित्य की एक समृद्ध एवं सक्षम पीढ़ी का निर्माण किया. 

वह अपनी कक्षा में कभी भी बिना पढ़े हुए, पढ़ाने नहीं जाते थे. इन संस्मरणों से श्रोतागण भाव,जिजीविषा व ज्ञान के सागर में गोता लगाते रहे. कभी आंखें सजल हुई तो कभी उत्साह से चेहरा खिल उठा. इस सत्र का संचालन डॉ. नागेश राम त्रिपाठी ने किया. डॉ. अखिल मिश्र ने आभार ज्ञापन किया.

 राष्ट्रीय संगोष्ठी के द्वितीय तकनीकी सत्र पर एक दृष्टि 

आचार्य रामचंद्र तिवारी मध्यकाल के बड़े आलोचक हैं : प्रो. टीवी कट्टीमनी

शिखरों से संघर्ष करने वाले आलोचक थे आचार्य रामचंद्र तिवारी : प्रो. अनिल राय

विरुद्धों के सामंजस्य के आलोचक थे आचार्य रामचंद्र तिवारी : प्रो.अरविंद त्रिपाठी

 दूसरे सत्र में 'रामचंद्र तिवारी और उनका आलोचना साहित्य' विषय चर्चा हुई। 

इस सत्र को संबोधित करते हुए प्रो.अनिल कुमार राय ने कहा कि संस्मरणों के माध्यम से उनका जो चित्र बनता है वह उनके प्रतिभाशाली, संवेदनशील अध्यापक का बनता है। अध्यापकीय आलोचना जैसे पद से रामचंद्र तिवारी जी का बहुत अपमान किया गया है। हिंदी आलोचना के निर्माण का कोई भी संदर्भ अध्यापको के बिना संभव नहीं है। अध्यापकीय आलोचना को नकारात्मक बनाने वाले भी अध्यापक ही रहे हैं। उनका आरोप था कि अध्यापकीय आलोचना सृजनात्मक नहीं रही है। वाल्टर वेंजामीन ने कहा था कि मैं उस आलोचना को सबसे खराब आलोचना मानता हूँ जो उद्धरणों से भरी पड़ी हो। नामवर सिंह ने अध्यापकीय आलोचना की आलोचना की है। आचार्य रामचंद्र तिवारी ने पथिकृत आलोचक शब्द खुद दिया है। गैर रचनात्मक आलोचना भी अध्यापकों ने ही लिखी है। पुस्तक समीक्षा आलोचना का प्रवेश द्वार है। आचार्य रामचन्द्र तिवारी को लोगों ने प्राध्यापकीय आलोचक कहा है। मधुरेश ने अध्यापक-आलोचक कहा है। मुझे लगता है कि दोनों प्रवृत्तियाँ उनके लेखन में मौजूद हैं। 'हिंदी का गद्य साहित्य' उनको राष्ट्रीय लोकप्रियता दिलवाने वाली कृति पर भी टिप्पणियां की गयी हैं। 

नामवर सिंह की भी आलोचना का एक हिस्सा उनके क्लास के भाषण ही हैं। ऐसे में विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर आलोचना लिखने वाले रामचंद्र तिवारी की आलोचना को अध्यापकीय आलोचना कहना उनका सरलीकरण करना है। रामचंद्र तिवारी , रामचंद्र शुक्ल की स्थापनाओं से भी टकराते हैं। विभिन्न ज्ञानानुशासनों में प्रवेश करते हुए रामचंद्र तिवारी ने आलोचना को प्रासंगिक बनाया। वे शिखरों से संघर्ष करने वाले आलोचक थे। जब वे आलोचक के रूप में उपस्थित होते हैं तो उनमें अध्यापक दिखाई देने लगता है और जब वे अध्यापक के रूप में उपस्थित होते हैं तो उनका आलोचक रूप दिखाई देने लगता है। 

अरविंद त्रिपाठी ने कहा कि हम लोग स्मृति हीन लोग हैं। आप पाएंगे कि रामचन्द्र तिवारी में एक जिज्ञासा का भाव है । यह आलोचक का गुण होता है। जिज्ञासा रखना छात्र होना है। विजय देव नारायण सही के शब्दों में 'अविराम बौध्दिक जिज्ञासा' थी उनमें। वे विरुद्धों के सामंजस्य के आलोचक थे। उन्होंने कबीर और तुलसीदास पर उसी तरह से डूब कर लिखा जैसे रामचंद्र शुक्ल ने लिखा था। तिवारी जी की आलोचना में तर्क है। उनमें संवेदना और भावना भी है। विवेक और साहस आलोचना का बड़ा गुण है जो तिवारी जी में मौजूद है। कई जगह वे रुक जाते हैं। बड़ी आलोचना का काम है खराद पर चढ़ाना। उनका जो उत्तरवर्ती काम है वह महत्वपूर्ण काम है। एक आलोचक में खोजा जाना चाहिए कि उसने कितनी आलोचनात्मक परिभाषिक शब्दावली का विकास किया। नवरत्न की अवधारणा हमारी परंपरा में रही है। 

प्रो. वेदप्रकाश पांडेय ने कहा कि उनका प्राण बसता था कबीर, तुलसीदास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल में। लोकमंगल, समन्वयशीलता , मानवीय संवेदना ये तीन शब्द आचार्य शुक्ल को बहुत पसंद थे उन्हीँ शब्दों के प्रति रामचंद्र तिवारी को भी लगाव था। कबीर उनके दिल के निकट बैठते थे। शुक्ल जी की बौद्धिकता तिवारी जी को प्राप्त हुई थी। इन्हीं तीन शब्दों का सामंजस्य किया उन्होंने। डॉ नामवर सिंह बड़े आलोचक थे। नामवर सिंह ने आलोचना में गुरुओं में विभाजन की रेखा को लोकमंगल, समन्वयशीलता और मानवीय संवेदना के आधार पर मिटा दिया । उनकी लकीर को छोटा कर दिया। 

इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए जनजातीय केंद्रीय विश्वविद्यालयय , हैदराबाद के कुलपति प्रो. टी. वी. कटटीमनी ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि रामचंद्र तिवारी मध्यकाल के बड़े आलोचक थे। आलोचना कठिन काम है। वह बड़े परिश्रमी अध्यापक थे। हिंदी की स्थिति अच्छी नहीं है इसको मानकर हम बात करते हैं। बहुभाषा विभाग बनाना जरूरी है। हमेँ नई योग्यता हासिल करनी है। कई साहित्यिक विधाओं और भाषाओं को पढ़ना होगा। लोक साहित्य को भी पढ़ना जरूरी है। दुनिया मेँ कोई विश्वविद्यालय नहीं है जो आप को पूर्ण मनुष्य बनाये , हमेँ खुद कोशिश करनी होती है। शिक्षक केवल वातावरण देता है। यह व्यापारियों की जगह नहीं है। गोरखनाथ की यह जगह है। हिंदी में वाई फाई को जोड़ना बहुत जरूरी है। अनुवाद को लेकर हम कर्नाटक में एक योजना बना रहे हैं। भाषा के बच्चे अगर ट्रांसलेशन सीख जाएं तो बहुत पैसा कमा सकते हैं। हिंदी क्षेत्र के लोगों की बहुत बड़ी कमजोरी है कि वे दूसरी भाषाएं कम सीखते हैं।

इस सत्र का संचालन डॉ. सुनील कुमार ने किया.आभार ज्ञापन डॉ. रामनरेश राम ने किया.

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