महात्मा बुद्ध मूल रूप से सनातन धर्म के अनुयायी रहे हैं ।

महात्मा बुद्ध मूल रूप से सनातन धर्म के अनुयायी रहे हैं ।

May 23, 2024 - 09:30
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महात्मा बुद्ध मूल रूप से सनातन धर्म के अनुयायी रहे हैं ।

     गौतम बुद्ध पुरातन वैदिक धर्म (सनातनधर्म ) के ही फलस्वरूप उत्पन्न हुए थे और उन्होंने जिस धर्म का उपदेश किया वह कोई नूतन धर्म नहीं था, जैसा भूल से कभी-कभी समझा जाता है। प्रत्युत वह उन अतिक्रमणों और अनाचारों के सुधार के रूप में उठ खड़ा हुआ था जो तत्कालीन वैदिक धर्म की परंपरा में घुस पड़े थे । वे भारत की क्षत्रिय अथवा वीरकर्मा जाति के थे ।
     उनका नाम शाक्यसिंह इसका साक्ष्य देता है, क्योंकि क्षत्रियों के व्यक्ति-बोधक नामों के साथ सिंह बराबर जोड़ा जाता है। वे जन्मना नैपाली थे और प्राचीन कालीन महर्षि कपिल के आश्रम कपिलवस्तु में उत्पन्न हुए थे । उनके पिता, जो क्षत्रिय (सिंह) थे और जिसका वास्तविक नाम वस्तुतः विलुप्त हो गया है, शास्त्रानुयायी कट्टर सनातनी थे और अपने शुद्ध भोजन के लिए प्रख्यात थे। इसीलिए उन्हें शुद्धोदन की उपाधि मिली थी, जिसका अर्थ है शुद्ध शाकाहारी' । इस प्रकार बुद्ध सनातन-धर्म के शुद्धतम स्वरूप के ही अंतर्गत उत्पन्न हुए थे। और उसी के पालने में पाले गए थे। वे स्वयं पुरातन वैदिक धर्म के अनुयायी थे। उनकी उपाधियों में से एक उपाधि है अर्कबंधु, जिसका अर्थ है 'सूर्य का मित्र'। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि वे सूर्य की सतत उपासना के लिए प्रख्यात थे; और सूर्योपासना भी अग्नि-पूजन का दूसरा रूप ही है। बुद्ध के मत्त और उनके अनु- यायियों के विभिन्न संप्रदायों में भी निश्चित रूप में अग्नि पूजन के लक्षण पाए जाते हैं । वैदिक विधि के विधानानुसार अग्नि (यज्ञ) के उपासक के लिए अपने मस्तक पर एक पगड़ी (उष्णीप अथवा शिरस्त्राण) धारण करनी पड़ती है। ऋषि-गण इस प्रकार की पगड़ी धारण किया करते थे और बुद्ध भी इस पगड़ी से विहीन नहीं देखे जाते । बुद्ध के पूजन के स्थान का नाम चैत्य है। इस शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है यज्ञ-स्थान' । उनके मंदिर यद्यपि अपनी निज की विशेषताएँ लिए हुए हैं, तथापि यह निर्विवाद है कि वे अग्नि की लपट के आकार के बने हुए हैं। उनके अनुयायी अपने मूलतः अग्नि-पूजन का निदर्शन करने के लिए अपने मस्तक में बालों का गुच्छा भी धारण करते हैं, जिसका नाम शिखा (व्युत्पत्ति से अग्नि की लपट) है। वे गो का आदर करते हैं, उनकी रक्षा करते हैं। वे दीपक जलाने के लिए घी का बहुतायत से उपयोग करते हैं और अपनी अन्य पूजन क्रियाओं में भी उसे काम में लाते हैं। यहाँ तक कि सुदूर पामीर में भी अब तक बुद्ध को प्रतिमाओं के समक्ष घृत का प्रकाश' किया जाता है। 
सभी अग्नि-पूजकों की भाँति बुद्ध ने भी देवों अर्थात् पारलौकिक जीवों की स्थिति की घोषणा की है और उनके छोटे-बड़े भेद भी माने हैं। साथ ही उनके निवास के लिए कतिपय अदृश्य लोकों (विश्वचक्रों अथवा दिव्य लोकों) को भी माना है। उन्होंने इंद्र (देवराज), ब्रह्मा (सहंपति अथवा सभापति), कुबेर (यक्षराज) और मार (कान-देव) के अपने समक्ष समय-समय पर उपस्थित होने की बात कही है। ये सब-के-सब सनातन-धर्म में वर्णित देवता हैं। उनके अनुयायियों ने आगे चलकर अपनी उपासना-पद्धति को प्रतिमा-पूजन के समर्थक तंत्रों में मिला दिया। ये तंत्र और कुछ नहीं, अग्नि के ही द्वारा देवताओं की उपासना करने वाले हैं । सनातन होने ही के कारण बुद्ध ने सनातनधर्मानुमोदित वर्ण-भेद का आदर किया है। इस कथन को प्रमाणित करने वाले वचन भी मिलते हैं और इसलिए विशेष महत्वपूर्ण है कि बौद्ध-धर्म के आगमों में पाए जाते हैं। "बोधिसत्त्व अथवा निर्वाचित बुद्ध वर्ण-विभेद को मानते हैं। वे कभी निम्न वर्णो में जन्म नहीं ग्रहण करते । इसलिए वे केवल दो ही उच्च वर्णो में से किसी एक में जन्म लेते हैं अर्थात् ब्राह्मण-वर्ण में अथवा क्षत्रिय-वर्ण में।” “ इस प्रकार का दान करने पर गुण-संपन्न पुरुष बोधिसत्त्व अथवा बुद्ध-स्वरूप हो जाता है और क्षत्रियों अथवा ब्राह्मणों के (उज्ज्वल) वंश में जन्म लेता है । " वे नीच कुल में कभी नहीं उत्पन्न होते, यह बोधि- सत्त्व का एक विशेष लक्षण है ।" "बोधिसत्त्व उच्च कुल में जन्म लेते हैं-क्षत्रिय-वंश में अथवा ब्राह्मण-वंश में। वे उसी कुल में उत्पन्न हुए थे जिसमें पूर्व-बोधिसत्त्व जन्मे थे। "
     उन्होंने जिस प्रकार वर्ण-भेद को मान्य समझा, उसी प्रकार प्राचीन धर्म द्वारा अनुमोदित भोजन-संबंधी नियमों पर भी ध्यान दिया है। उन्होंने भोजन सम्बन्धी विधानों में श्रमणों (संन्यासियों, साधुओं ) के लिए सभी आहारों-जैसे दूध और उससे बने हुए पदार्थों तक का-निषेध किया है। इस प्रकार वे स्वादिष्ट आहार के निषेध में शास्त्रों से भी आगे बढ़ गए हैं। पर इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने श्रमणों को सब प्रकार के दाताओं से कुल का विचार किए विना अनिषिद्ध भिक्षान्न ग्रहण करने की आज्ञा दी है, जैसा कि वे स्वयं किया करते थे। इस विषय में श्रीशंकराचार्य और उनके अनुयायी (संन्यासी) भी, जो हिंदू-धर्म में सर्व- श्रेष्ठ धार्मिक व्यक्ति समझे जाते हैं, उनसे बहुत अधिक समानता रखते हैं। यहाँ पर एक बात ध्यान देने की यह  है कि बुद्ध ने प्राचीन धर्म की परंपरा का अनुसरण करते हुए मृतकों का अग्नि- संस्कार करने का विधान किया और श्रीशंकराचार्य ने इससे हटकर अपने अनुयायियों को विदेशी ढंग से मृतकों को गाड़ने की आज्ञा दी ।
      आचार-नीति और दार्शनिक सिद्धांत दोनों में बुद्ध ने वैदिक ऋषियों का पदानुसरण किया है। वैदिक ऋषियों के प्रत्ति उनकी सत्कार-बुद्धि का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने स्थान-स्थान पर अपने कथनों के प्रमाण में उनके वचनों का उल्लेख किया है। उन ऋषियों को वे पूर्वबुद्ध अर्थात् प्राचीन बुद्ध के नाम से पुकारते थे। यही बात उनके निम्नोक्त कथन से भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित होती है कि मैंने बनारस को अपने धर्म-प्रवर्तन का संदेश देने का प्रारंभ करने के लिए इस कारण चुना कि यह एक बहुत प्राचीन प्रदेश है और प्राचीन ऋषियों द्वारा पवित्र समझा जाता है । विनयसूत्र अथवा बौद्धागम का नीतिशास्त्र स्पष्ट ही सनातन - धर्मशास्त्र के गृह्यसूत्र का संक्षिप्त अनुवाद है। उन्होंने जो जीव-वध और सामान्य रूप से हिंसा का निषेध किया है वह भी प्रसिद्ध वैदिक प्रमाणों के आधार पर ही । उनको उन्होंने ज्यों-का-त्यों उद्‌धृत भी कर दिया है । उनका विश्व-प्रेम का सिद्धांत, अघृणा के द्वारा घृणा को जीतने के सिद्धांत पर आश्रित है, जो मूलतः एकदम वैदिक है । उन्होंने विवाह-संबंधी पवित्रता के वैदिक सिद्धांत को माना है और व्यभिचार को अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखा है।
   ऋषियों की भाँति उन्होंने आत्मा, उसके पुनर्जन्म और भावी जन्म में विश्वास किया है और साथ ही प्रतिफल (कर्म) के सिद्धांत को माना है, जिसके अनुसार जन्मांतर में सुकर्मों का अच्छा और कुकर्मों का बुरा फल भोगना पड़ता है। उन्हीं की तरह इन्होंने योग-दर्शन में विश्वास किया है,' स्वयं योगाभ्यास किया है और उसके अभ्यास से योगिराज हो गय हैं तथा साथ ही दूसरों को उसकी शिक्षा भी दी है। उन्होंने योगियों की सबसे बड़ी शक्ति, पूर्वजन्मों की बातों के यथावत् स्मरया की शक्ति (जाविस्मरत्व), को प्राप्त कर लिया था। इनकी अध्यात्म-विद्या भी वैदिक ऋषियों से भिन्न नहीं है'। उनके स्वीकृत नामों में से एक नाम अद्वयवादिन् भी है। जिसका अर्थ है, केवल एक की सत्ता के सिद्धांत को मानने ला-उपनिषदों का सच्चा अनुयायी। उनके दार्शनिक मत में निरूपित उक्त एक अथवा अंतरात्मा वही है जिसे आर्यों ने अनंत चैतन्य (अथवा शुद्ध आत्मा) कहा है और प्राचीन वैदिक धर्म में 'ज्ञानमनंतम्' (अथवा ब्रह्म) के नाम से जिसका प्रचार किया गया है। अपने उक्त सिद्धांत का मूल आर्यों का ही सिद्धांत प्रदर्शित करने के अभिप्राय से बुद्ध इसे 'आर्यप्रज्ञा- पारमिता' के नाम से पुकारते हैं और इसमें वैदिक काल के विशेषण-पदों अर्थात् अमित (अनंत), निर्विकल्प (नित्य) आदि' का प्रयोग करते हैं। यही उनके दर्शन का वैदिक ब्रह्मवाद है। बौद्ध-दर्शनों में उक्त ब्रह्मवाद के मायावाद के अनुरूप शून्यवाद भी पाया जाता है। शून्यता का अर्थ बुद्ध ने संसार को बनाने वाले समस्त चेतन पदार्थों का स्वप्नवत् असत् व्यापार, भ्रांतिजनक आभास (अर्थात् माया) माना है। आगे चलकर शून्यवाद का उल्था अभाववाद के असत्सिद्धांत के रूप में किया गया, पर इसके प्रवर्तक बुद्ध नहीं कहे जा सकते । क्योंकि बुद्ध उपनिषद्-प्रतिपादित धर्म के अनुयायी थे, इस बात को वे शब्द स्पष्टता के साथ प्रकट कर रहे हैं जो बुद्धगया के प्रसिद्ध बोधि-वृक्ष के नीचे बुद्धत्व प्राप्त होने के समय उनके मुख से निकले थे। उन वचनों में बुद्ध ने अपना वही मत प्रकट किया है जो वेदांत का है अर्थात् आत्मा ही ब्रह्म है और इसी बात का ज्ञान हो जाने से मोक्ष मिल सकता है। उन्होंने कहा है-" ऐ शरीर के स्रष्टा ! मैंने तुझे देख लिया है, अब तू मुझे विभिन्न योनियों में उत्पन्न न करेगा। " इस प्रकार की उक्ति, जो बौद्धों के लिए एक तरह की पहेली थी, केवल वे ही  लोग समझ सकते हैं जो सनातन-धर्म के तत्त्वों के ज्ञाता हैं अर्थात् उपनिषदों के रहस्य से अभिज्ञ हैं, योग के तत्त्व को समझते हैं । उपनिषदों के ऋषियों' की भाँति बुद्ध ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि मोक्ष का सच्चा मार्ग सद्ज्ञान और सत्कर्म के युगपद् अभ्यास पर ही आश्रित है । इसके अतिरिक्त और आगे बढ़कर उन्होंने इस बात को भी माना है कि सत्कर्म समस्त कामनाओं के पूर्ण विराम की ओर ले जानेवाला है।

डॉ. कृष्ण मुरारी मणि त्रिपाठी 
प्राध्यापक, दर्शन विभाग
श्री जो.म.गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी

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