कुम्भ; आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा महापर्व
लेखक- गणेश शुक्ल
माघ मकर गति रवि जब होई तीरथपती आव सब कोई |
आस्था का जनसैलाब ,भक्ति मे डूबा हृदय आत्मा से परमात्मा के मिलन के लिए डुबकी लगाते, अर्घ देते श्रद्धालु और रेत पर बसा दूधिया रोशनी मे नहाया तंबुओ का एक छोटा शहर ,यह दृश्य हर साल माघ महीने मे तीर्थराज प्रयाग मे हर वर्ष मकरसंक्रांति के पर्व से शुरू होकर महीनो तक चलता है| इसकी खूबसूरती इस बात से ज्यादा है ,यहाँ न कोई छोटा , न बड़ा, न अमीर, न गरीब है, संगम की रेती पे इकट्ठा हुजूम बस भक्त है, जो पुण्य की एक डुबकी के अभिलाषी है| इस देश के धर्म प्राण जनता के हृदय पटल पर इसकी छवि इतनी गहराई से अंकित है ,सदियो से इस पर्व पर आमंत्रित होने के लिए निमंत्रण की आवश्कता नही होती|
शास्त्रो के अनुसार कुम्भ मेले के आयोजन के लिए चार विशेष स्थान तय है ,नासिक मे गोदावरि नदी के तट पर ,उज्जैन मे शिप्रा नदी के तट पर,हरिद्वार मे गंगा नदी के तट पर और प्रयाग मे संगम (गंगा यमुना सरस्वती का संगम )के तट पर यह अद्भुत मेला प्रत्येक 12 वर्षो के अंतराल पर लगते है ,इस 12 वर्षो के बीच 6 वर्षो मे इस मेले का आयोजन अर्धकुंभ के नाम से होता है ,उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इसका नाम कुंभ और 12 वर्षो के अंतराल पर लगाने वाले कुंभ का नाम महाकुंभ कर दिया | ग्रहों के अनुसार कुम्भ मेले का आयोजन होता है| माघ महीने के जिस तिथि को बृहस्पति मेष अथवा वृष राशि मे हो तथा सूर्य और चन्द्र कर्क राशि मे विराजमान हो उस तिथि पर ये मेला प्रयागराज मे लगता है |यह आयोजन धार्मिक लोगो को सदकर्म के लिए प्रोत्साहित करता है ,बल्कि असत्य पर सत्य की विजय का प्रमाण देता है |
कुम्भ मेले का आयोजन इतिहास मे कम से कम 850 साल पुराना है ,माना जाता हैं आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुवात की थी लेकिन कुछ कथाओ के अनुसार कुंभ की शुरुवात समुद्र मंथन के आदिकाल से हो गयी थी,जबकि कुछ प्रमाण यह सिद्ध करते है कुंभ मेला 525 बी. सी. मे शुरू हुआ था| कुछ विद्वान गुप्तकाल मे कुम्भ आयोजन की बात करते हैं, परंतु प्रामाणिक तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई0 के समय से प्राप्त होते हैं| 644 ई0 मे चीनी यात्री हेनसांग भारत आया था उसके किताबों मे इस बात का जिक्र है, वह सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुंभ मे स्नान किया|
आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा यह महापर्व अपने देश की सामाजिक सांस्कृतिक अवधारणाओ का मूर्त रूप है ,यह प्राचीनतम लोकपर्व राष्ट्र के समन्वयात्मक ,सांस्कृतिक जीवन का व्यावहारिक आधार है, इस पर्व से राष्ट्रीयता का भाव सुदृढ़ होता है | अमृत पर्व कुंभ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के विचार पक्ष को अग्रसर करता हुआ आत्मवत सर्वभूतेशु मे तदाकार हो जाता है ,स्कन्द पुराण के अनुसार भक्तिभाव पूर्ण स्नान करने से जिसकी जो कामना होती है वह निश्चित रूप से पूर्ण होती है, अग्नि पुराण मे कहा गया है की इससे यही फल प्राप्त होता है जो करोडो गायोंका दान करने से मिलता है, ब्रह्म पुराण मे कहा गया है की स्नान करने से अश्वमेघ यज्ञ जैसा फल मिलता है |श्रद्धालुओ के अलावा यह आयोजन विदेशी पर्यटको को भी आकर्षित करता है ,विदेशी पर्यटको के लिए यह सब कुछ चकित करने वाले है ,अब तक जो किताबों मे पढ़े है उनको देखने का अवसर मिल रहा है यह पल उन सबों के लिए अविश्मरणीय है | साइबेरियन पक्षी भी भीषण ठंड के कारण संगम मे आकार पनाह लेते है | विश्व इस सबसे बड़े समागम को ऐतिहासिक बनाने के लिए केंद्र की सरकार उत्तर प्रदेश की सरकार देश के हर गाँव ,विश्व के हर देश की भागीदरी सुनिश्चित करने मे जुट गयी है |अतिथियों और श्रद्धालुओ को किसी तरह की कोई परेशानी न हो और मूलभूत आवश्यकताओ को ध्यान मे रखते हुये मेला क्षेत्र मे 2 लाख शौचालय बनवाए गए है | 300 किलोमीटर का पथ तैयार किया गया है, पहली बार कुम्भ मेले मे इंट्रीग्रटेड कन्ट्रोल कमांड एंड सेंटर स्थापित किया गया है ,जिससे किसी भी घटना पर सीधी नजर रखी जा सके ,कुम्भ मे टेंट सिटी ,पेंट माई सिटी ,अक्षयवट दर्शन , लेजर शो ,डिजिटल साइनेज और संस्कृति ग्राम आदि जैसी नयी योजनाओ की पहल की गयी है| महाकुंभ मेला का विस्तार 6000 हेक्टेयर मे किया गया है,पहली बार 15 देशो के राष्ट्राध्यक्ष कुंभ मे आएंगे तथा लगभग 150 देशो के डेलिगेट्स के अलग अलग इवेंट आयोजित होंगे| 70 देशो के राजदूतों ने कुम्भ के आयोजन की तैयारियो को देखने और दुनिया के सबसे बड़े संगम का दर्शन करेंगे| महाकुम्भ श्रष्टि मे सभी संस्कृतियो का संगम ,मानवता का प्रवाह ,जीवन की गतिशीलता एवं ऊर्जा का श्रोत है| कुम्भ समारोह भारतीय चिंतन की समरसता प्रकृति और पर्यावरण चेतना को दर्शाता है ,कुम्भ समता सौहार्द्य और राष्ट्रवाद का संदेश देता है | ऐसे आयोजनो के माध्यम से हम सब सामाजिक एकता कायम कर आत्म प्रकाश का मार्ग प्रशस्त कर सकते है गोस्वामीई तुलसीदास ने रामचरितमानस मे लिखा है ‘को कहि सके प्रयाग प्रभाऊ| कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ’ अर्थात पापो के हाथी रूपी समूह को मारने के लिये सिंह रूपी प्रयागराज का प्रभाव कौन कह सकता है |
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