भोजपुरी जीवन का पर्व: डाला छठ
प्रोफ़ेसर डॉ. सदानंद शाही की कलम से...
पूर्व कुलपति
शंकराचार्य प्रोफ़ेशनल विश्वविद्यालय, भिलाई
पूर्व विभागाध्यक्ष,
हिन्दी विभाग
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि की शाम । बनारस का अस्सी घाट ही नहीं गंगा सहित सभी छोटी बड़ी नदियों के किनारे छठ पर्व का मेला पसर जाता है । यहाँ से वहाँ तक । छठ पर्व इधर भोजपुरी अस्मिता का प्रतीक बन कर उभरा है । अस्मिता या पहचान को राजनीतिक रूप से भुनाने वाले भी छठ मे हिस्सा लेने लगे हैं । वास्तव में यह सूर्य की उपासना का व्रत है सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं .कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम के मंगलाचरण में जिन दस प्रत्यक्ष देवताओं को याद किया है। उनमे सूर्य भी हैं ।मुझे एक बात नहीं समझ मे आती है कि सूर्य की आराधना की जाती है और गीत छठ मैया का गाया जाता है । हमारा इतना प्रखर और प्रत्यक्ष देवता लोक तक आते आते कैसे माँ में बदल जाता है । आखिर गायत्री भी तो सूर्य की उपासना का मंत्र है उसे भी गायत्री माँ के रूप मे बदल दिया गया । अब अगर हजारी प्रसाद द्विवेदी होते तो उनसे पूछता कि क्या कोई ऐसी लोक परंपरा रही है जो सूर्य के ममत्व को देख लेती रही है और यह त्योहार उसी लोक परंपरा या शास्त्र से इतर परंपरा की स्मृति है? खैर इस बारे में अभी भी हम कमलेश दत्त त्रिपाठी से उम्मीद कर सकते हैं ।
अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने महिलाएं अलग अलग झुंड मे जुट रही हैं । पीले और नारंगी के बीच के रंग का खास सिंदूर नाक से लेकर मांग तक लगाए . अलग अलग दल गाते हुए घाट की ओर बढ़ रहे हैं – कांचहि बांस के बहन्गिया,बहंगी लचकत जाए /पेन्ह ना पियरिया कवन राम ,दउरा घाट पंहुचाव/बाट जे पूछेला बटोहिया ,ई दल केकरा के जाए/तें त आन्हर हवे रे बटोहिया /ई दल छठी मइया के जाये – ई दल आदित मॉल के जाए . बहँगी कच्चे बांस की बनी बड़ी सी डलिया होती है ,जिसे कहीं कहीं दउरा या दौरी भी कहते हैं । दउरा या दौरी ले जाने के लिए घर के पुरुष से पियरी पहनने के लिए कहा जा रहा है . सब कुछ इसी में रख कर लाया जाता है,इसीलिए इसे डाला छठ कहते हैं -शायद .अगर कोई बटोही भूल से पूछ देता है कि लोग कहाँ जा रहे हैं तो उसे मुफ्त में आन्हर की उपाधि मिलती है –जिसे यह भी पता नहीं कि लोग छठ माता और आदित्य के पास जा रहे हैं वह अंधा ही होगा .घाट पर भी तैयारी चलती रहती है । कभी कभी सूर्य की बादलों से आँख मिचौली होने लगाती है .फिर भी बादलों के बीच से उनकी आभा छन कर आती रहती है । ऐसा क्यों होता है की सूर्य को छल बादल ढक लेते हैं एक अनिश्चितता सी छाई हुयी रहती है । अनिश्चितता के बीच अद्भुत निश्चिंतता का माहौल बन जाता है । सब लोग तट का कुछ हिस्सा घेरे रहते हैं । लीप पोत कर बेदी बना ली जाती है। दिये जलते हैं । गन्ने को जमीन में इस तरह लगाया जाता है मानो मंडप बनाने की तैयारी हो रही हो । बांस की बहँगी मे मौसमी फल और प्रसाद रखे जाते हैं । । मजे की बात यह कि ढोने का काम पुरुष करते हैं -पति महोदय हों ,देवर हों या श्रीमान दामाद जी ही क्यों न हों । यहाँ कुछ विशेष नहीं चढ़ना है –रोज के उपयोग की सामान्य चीजें । सिंघाड़ा ,मूली ,नीबू ,कच्ची हल्दी ,भिंगोया चना ,खीरा ,अमरूद ,अदरक ,मौसमी और केला । इधर सेब ,संतरा ,अनन्नास भी दिखने लगे हैं । इस पूजा मे खास मिठाई बनती है । आटे में चीनी (कभी कभी गुड भी )मिलाकर अच्छी तरह माड़ लेते हैं । कुछ लोग मोयन भी डाल देते हैं । इसे हमारे यहाँ खजूर कहते हैं । कहीं कहीं इसको ठेकुवा भी कहते हैं । यही साधारण चीजें अर्घ्य मे चढ़ाई जाती हैं । रवीन्द्रनाथ का एक गीत अनायास याद आ जाता है –देवता को क्या दूँ /जो प्रिय को दे सकता हूँ /वही देवता को भी देता हूँ /क्योंकि मैंने देवता को प्रिय बना लिया है और प्रिय को देवता । छठ में दैनंदिन जीवन का ही समर्पण है । समर्पण का उल्लास है ।
जिन्हें व्रत का माहात्म्य नहीं पता –उन पर भी अजब सी खुशी छाई रहती है । उधर गंगा बह रही हैं ,इधर खुशी का सागर हिलोरे ले रहा है । मुझे नहीं मालूम कि अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा कहीं और की जाती है या नहीं । आम तौर पर तो उगते हुये सूर्य की पूजा होती है –पूजा में भी और जीवन व्यवहार में भी । इस अनूठे पर्व में डूबते हुये सूर्य की अभ्यर्थना के लिए जन समुद्र उमड़ पड़ता है । दिन भर अपने आलोक से हमारे जीवन को प्रकाशित करके ,अपनी ऊर्जा से हमे ऊर्जस्वित करके जो विदा हो रहा है , अस्त हो रहा है क्या यह उसके लिए आभार व्यक्त करना है । क्या यह भोजपुरी मन की विशेषता है -कृतज्ञता और आभार से भरा हुआ !अचानक बादलों को भेद कर सूर्य थोड़ी देर के लिए दिख जाते हैं । दर्शन के लिए उमड़े जन समुद्र को हाथ हिलाते हुये झट चले भी जाते हैं । लेकिन इतने मे ही अर्घ्य दे दिया जाता है । लोग अपने घरों की ओर लौटते है ,प्रसाद से भरा डाल उठाए । यही प्रसाद अगली सुबह उगते हुये सूर्य को चढ़ाया जाना है । छठ माँ का मधुर गीत दो दिन पहले से ही गूंजने लगता है ।
सप्तमी की सुबह । फिर वही वही घाट । फिर वही जन समुद्र । कल जहां निगाहें पश्चिम की ओर लगी थीं ,आज पूरब की ओर लग जाती हैं । उगते हुये सूर्य का इंतज़ार । व्रत पूरा होगा । मन्नतें पूरी होने की आसूदगी । छल बादलों का अंदेशा बना रहता है ।सब बेसब्री से पूरब के आसमान को देखते रहते हैं . सबकी निगाहें उस तरफ हैं । महिलायें सूर्य से निहोरा करने लगती हैं- उगीं उगीं न आदित मल,लिहिन न अरघिया हमार . नारी कंठ ने सूरज को आदित मल्ल बना दिया है. आदित्य लोक में आकर आदित मल्ल हो जाते हैं . स्त्रियाँ आदित मल्ल से उठने का आग्रह करती हैं । मानो किसी देवता से नहीं बल्कि घर के किसी बूढ़े बुजुर्ग से उठने के लिए कहा जा रहा है । उठिए ! अर्घ्य ले लीजिये । खैर सूरज हमारे बड़े बूढ़े हैं इससे किसको इंकार होगा । अब आदित मल्ल हैं कि बादलों से उलझे पड़े है । बादलों ने रास्ता रोक रखा है लेकिन कब तक । वो ,उधर पूरब के क्षितिज पर थोड़ा ऊपर निकल ही पड़े आदित मल्ल । बादल कब तक उन्हें रोकेंगे घर के लोगों से मिलने से । वे निकल पड़े हैं । इंतज़ार खत्म होता है । अर्घ्य देने का सिलसिला शुरू । कुल के सबसे बड़े बूढ़े को प्रणाम करने के बाद घर के बड़े बूढ़ों को प्रणाम किया जाता है । व्रत पूरा हुआ । प्रसाद बट रहा है ।प्रसाद भी कैसा ! पहले डूबते हुये सूरज को चढ़ाया गया फिर उगते हुये सूरज को । परिचितों रिशतेदारों में ही नहीं हरेक जो वहाँ पहुचा है प्रसाद पाने का हकदार है ।
छठ के साथ भोजपुरी नए वर्ष की शुरुआत हो जाती है । यह कैसा पर्व है जिसमे ऋतु के साथ तादात्म्य स्थापित किया जाता है ,उदित और अस्त होने को जीवन क्रम मान कर बराबर सम्मान दिया जाता है । विशिष्ट का इंतज़ार नहीं । सहज साधारण वस्तुओं से सहज जीवन में प्रत्यक्ष देवता की आराधना की जाती है । देवता भी ऐसा जो हममे जीवन का संचार करता है । हममें ही क्यों समूची प्रकृति को अपनी ऊर्जा से ऊर्जस्वित,प्रभा से भास्वित करता है ।“करवा जे फरेला घवद से,ओपर सुग्गा मेडराय/सुगवा के मरबों धेनुख से ,सुग्गा जइहें मुरछाय/सुगनी जे रोवेले वियोग से ,आदित दिहें ना जिआय” .ऐसा देवता जो पशु पक्षी के दुःख की चिंता करता है . कहीं कोई भेद भाव नहीं । वह छठ माँ के रूप में सबको ममता के अंचल में रखता है ,आदित मल्ल के रूप मे बड़े बुजुर्ग कि तरह हमारा हितू है । सहज जीवन में उपलब्ध । खुशियाँ बिखेरता हुआ । जहाँ –बजना कहेला हम बाजबि,अपने रंगे बाजबि हो राम /दियना कहेला हम बरबि अपने रंगे बरबि हो राम .सब कुछ अपने रंग में आ जाता है .इस पर्व में सब अपना सहज रूप लेकर प्रकट और प्रकाशित होते हैं और धरती को सरस बनाने में लग जाते हैं .निजता ऐसा है भोजपुरी समाज का दुलारा पर्व डाला छठ .
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