देश के इकोनामिक पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह

Dec 27, 2024 - 21:59
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देश के इकोनामिक पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह

'मीडिया की तुलना में इतिहास मेरे प्रति अधिक उदार रहेगा'

यह कुछ आखिरी शब्द थे डॉ मनमोहन सिंह के जब उन्होंने अंतिम बार एक प्रधानमंत्री की हैसियत से प्रेस कांफ्रेंस की थी।

बीते गुरुवार देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के निधन से देश मे शोक की लहर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह , कांग्रेस अध्यक्ष एकनाथ खडगे व नेता राहुल गांधी समेत तमाम हस्तियों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। डॉ मनमोहन सिंह के निधन से 7 दिवस का राजकीय शोक घोषित हुआ है। सन्न 1932 में जन्में मनमोहन सिंह शुरू से ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। एक साधारण पृष्ठभूमि से होने के बावजूद वो देश के गवर्नर, वित्त मंत्रीप्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होते हुए उनकी सदन शालीनता व सरल मुस्कान का विपक्ष द्वारा खूब विरोध किया जाता था। आज के राजनीतिक दौर में तो संसद में हाथापाई की खबरें भी सुनने को मिल जाती हैं। किंतु मनमोहन सिंह द्वारा विपक्ष के हर विरोध का उत्तर बेहद विनम्रता व बुद्धिमत्ता से दिया जाता था। अर्थशास्त्र विषय मे रुचि रखने वाले डॉ मनमोहन सिंह ने पंजाब विश्विद्यालय से स्नातक व परास्नातक करने के बाद उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पीएचडी की। जिसके बाद वो भारत आकर पंजाब विश्विद्यालय में ही लेक्चरर बन गए। उनकी योग्यता व विषय विद्वानता के कारण उन्हें 1966 से 1969 तक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भारत के आर्थिक मामलों के अधिकारी के रूप में दायित्व सम्भाला। इसके बाद उन्हें 1971 में वाणिज्य एवम उद्योग मंत्रालय का आर्थिक सलाहकार बनाया गया जहां पर उनकी कार्य श्रेष्ठता से अगले वर्ष उन्हें वित्त मंत्रालय का मुख्य आर्थिक सलाहकार पर प्रमोट कर दिया गया। बेहतर आर्थिक हालातों व योग्यता के कारण उन्हें

1982 में भारतीय रिज़र्व बैंक का गवर्नर

बनाया गया जहां पर उन्होंने ने रिज़र्व बैंक के अधिनियमों का कुछ संशोधन कर उसे और दुरुस्त करा। उनकी लग्न व बेहतर कार्य परिणाम को देखते हुए उन्हें प्रधानमंत्री का मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाने के साथ यूनिवर्सिटी अनुसंधान जिसे हम यूजीसी कहते हैं उसका अध्यक्ष भी बनाया गया।सन्न 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें एक ऐसे वित्त मंत्री की तलाश थी जो भारतीय अर्थव्यवस्था की जमीनी हालातों से वाकिफ हो और उसे सुधार सके। ऐसे में उनके सलाहकार पीसी अलेक्जंडर ने डॉ मनमोहन सिंह ने नाम उन्हें सुझाया और रात में ही उन्हें फोन कर उनके नए दायित्व के बारे में अवगत कराया गया उस समय वो यूजीसी के चैयरमेन के रूप में कार्य कर रहे थे। एक दक्ष लेक्चरर होने के बाद ब्यूरोक्रेसी में आये डॉ मनमोहन सिंह को जब राजनीति में वित्त मंत्री के रूप में पदार्पण करने की सूचना मिली तो उन्हें इसका विश्वास नही हुआ। उनके शपथ ग्रहण के बाद उन्हें असम से राज्यसभा सदस्य बनाया गया और फिर वो 33 वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य रहे। 1985 का समय था, भारत में भुगतान के संतुलन की दिक्कत होने लगी थी और सरकार का खर्च अधिक था और आय कम। आय और व्यय के बीच असमानता ज्यादा थी ऐसे में साल 1990 के आखिर तक आते-आते देश के सामने गंभीर आर्थिक संकट आ चुका था। सरकार डिफॉल्टर होने के करीब पहुंच चुकी थी। केंद्रीय बैंक ने और नए कर्ज देने से इनकार कर दिया था। साल 1991 में स्थिति और बिगड़ गई थी. खाड़ी युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमत आसमान पर पहुंच गई थी। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार केवल छह बिलियन डॉलर रह गया था। इससे पेट्रोलियम समेत दूसरी आवश्यक वस्तुओं का अधिकतम दो सप्ताह तक आयात किया जा सकता था। तब 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने बजट में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण से जुड़ी अहम घोषणाएं की। इस एलपीजी पालिसी की घोषणा के पहले पीवी नरसिम्हा राव ने डॉ मनमोहन सिंह से पहले ही कह दिया था कि यदि ये सफल रहा तो श्रेय दोनों का होगा और यदि न रहा तो सिर्फ आप ही इसके जिम्मेदार होंगे। लेकिन ऐसा नही हुआ भारत की अर्थव्यवस्था को नई रफ्तार मिली। इसके चलते देश में व्यापार नीति, औद्योगिक लाइसेंसिंग, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति से जुड़े नियम-कायदों में बदलाव किए। विदेशी व्यापार से देश का निर्यात बढ़ा और देश मे अच्छा फॉरेन मनी आने लगा। 1998 से 2004 की अटल सरकार के दौरान वो राज्यसभा में बतौर विपक्ष नेता रहे।

2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने यूपीए गठबंधन बनाया और कई दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई। सोनिया गांधी 1998 में राजनीति में आई थीं और 2004 में पार्टी की कमान संभाल रही थीं। लोकसभा चुनाव के ओपिनियन पोल में भाजपा को बहुमत मिलने की भविष्यवाणी की गई थी। भाजपा जीत के भरोसे में थी। नतीजे आए तो बीजेपी 182 सीटों से लुढ़ककर 138 सीटों पर आ गई थी। कांग्रेस 114 से बढ़कर 145 सीटों पर पहुंच गई। हालांकि, पीएम कौन बनेगा, इस बात को लेकर अनिश्चितता थी। यूपीए सरकार में विदेश मंत्री रहे नटवर सिंह अपनी किताब 'वन लाइफ इज नॉट एनफ' में लिखते हैं, 'उस समय गांधी परिवार पसोपेश में था। राहुल ने अपनी मां से कहा कि वो पीएम नहीं बनेंगी। राहुल अपनी मां को रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। दोनों मां-बेटे के बीच तीखी नोकझोंक और ऊंची आवाज में बातें हो रही थीं। राहुल को डर था कि मां पीएम बनीं तो उन्हें भी दादी और पिता की तरह मार दिया जाएगा।' आखिर में राहुल से हारकर सोनिया गांधी ने डॉ मनमोहन सिंह का नाम पीएम के लिए आगे किया जिसपर पूरी कांग्रेस पार्टी ने सोनिया गांधी की तुलना महात्मा गांधी से करना शुरू करदी थी क्योंकि जब भारत स्वतंत्रत देश बना तब महात्मा गांधी ने खुद को पीछे कर पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे करा था।

साल 2003-4 के आसपास से ही देश मे जनसंख्या वृद्धि होने लगी जिससे रोजगार, महंगाई समेत कई संकट दस्तक दे चुके थे। ऐसे में डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश मे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) कानून पास हुआ। इस एक कानून ने देश में पलायन की समस्या पर रोक लगाने में अहम भूमिका अदा की। इतना ही नहीं, इस कानून की वजह से गांव, गरीब और अकुशल लोगों के लिए 100 दिन का गारंटीड रोजगार मिलना सुनिश्चित हुआ। इस कानून ने 2008 की मंदी में देश के अंदर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बचाए रखने का काम किया। 2005 में ही मनमोहन सरकार द्वारा सूचना का अधिकार लाया गया जिससे ट्रांसपरेंसी लाने का बड़ा काम हुआ और सरकार की जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित हुई। इसके साथ ही उन्होंने स्किल डेवेलपमेंट पर भी जोर दिया जोकि आज एक मंत्रालय बन चुका है। भारत व अमेरिका के बीच न्यूक्लियर समझौता व देश को आधार कार्ड से परिचय करवाने का कार्य भी उन्ही की सरकार में हुआ। डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बरु ने अपनी किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' मे डॉ मनमोहन सिंह से सम्बंधित उनके तंग पब्लिक स्पीकिंग के किस्सों का जिक्र कर बताया गया है कि उन्हें पब्लिक स्पीकिंग और कैमरा फेसिंग में बहुत समस्याएं होती थीं। तीन तीन दिनों तक उनके भाषण लिखना व टेलीप्रॉम्प्टर से उनसे भाषण पढ़वाना एक कठिन टास्क माना जाता था। कभी कभी तो प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके कान में 'सर स्माइल' कहा जाता था क्योंकि वो हमेशा गम्भीर रहते थे और यदि किसी देश का सर्वोच्च व्यक्ति हमेशा गम्भीर बना रहेगा तो इससे पूरे विश्व मे यह खबर जाने का डर था कि भारत मे आंतरिक समस्याएं चल रही हैं जिससे डॉ मनमोहन सिंह बहुत गम्भीर हैं। वैश्विक मीडिया ज्यादातर मुद्दों को पाकिस्तान से जोड़ रहा था जिससे अशांति फैल रही थी जबकि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का मुख्य ध्येय देश की इकनॉमी बेहतर करना था। अमूमन हम हर प्रधानमंत्री के संसद के बयानों का जिक्र करते है ऐसे में एक बार लोकसभा में वोट के बदले नोट विषय पर चर्चा हो रही थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह विपक्ष पर सवालों पर जबाव दे रहे थे। बात है 2012 की जब नेता विपक्ष सुषमा ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा था- तू इधर उधर की न बात कर, ये बता के कारवां क्यों लुटा; मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है। इसके जवाब में मनमोहन सिंह ने कहा था- 'माना के तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक तो देख, मेरा इंतजार तो देख।' मनमोहन सिंह के इस जवाब पर सत्ता पक्ष ने काफी देर तक मेज थपथपाई थी, वहीं विपक्ष खामोश बैठा रहा था। इस शायराना नोकझोंक का वीडियो खूब जगह फैला था। 2014 में मिली करारी हार के बाद डॉ मनमोहन सिंह सक्रिय राजनीति से दूर होते चले गए। अंतिम बार सितम्बर 2023 में वो व्हील चेयर पर राज्यसभा में एक वोटिंग में भाग लेने पहुंचे थे उनके इस जज्बे और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का गुणगान स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया था। अटल बिहारी वाजपेयी के बाद डॉ मनमोहन सिंह ऐसे पूर्व प्रधानमंत्री रहे हैं जिन्हें हम 'अजातशत्रु' कह सकते हैं। डॉ मनमोहन सिंह सदैव महान अर्थशास्त्री, गम्भीर प्रधानमंत्री, सादगीबुद्धिमता के प्रतिबिंब के रूप में याद किये जाएंगे।

- सिद्धार्थ शुक्ला

( लेखक आईएमआरटी से प्रबंधन का छात्र है )

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