भाषायी अमर्यादा से तार तार होता भारतीय लोकतंत्र
महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में
भारतीय लोकतंत्र, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में, अपनी विविधता, सहिष्णुता और विचार-विमर्श की संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है।
यह लोकतंत्र केवल संविधान और संस्थाओं के सहारे नहीं चलता, बल्कि इसमें राजनीति के लिए स्थापित मानक, शिष्टाचार और मर्यादित भाषा का भी महत्व है। लेकिन बीते वर्षों में, विशेषकर महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों के दौरान, राजनीतिक बयानबाज़ी में भाषा की मर्यादा को तार-तार होते देखा गया है। राजनीतिक विमर्श में भाषा का गिरता हुआ स्तर नई समस्या बनता जा रहा है। चुनावों के दौरान व्यक्तिगत हमले, अपमानजनक उपमाएं, जाति और धर्म पर आधारित भड़काऊ टिप्पणियां आम बात हो गई है। महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव में देखा गया कि व्यक्तिगत जीवन और परिवारों को निशाना बनाते हुए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ हैं। विपक्ष और सत्ता पक्ष के नेताओं ने एक-दूसरे पर अनर्गल आरोप लगाए। वहीं, झारखंड में चुनाव प्रचार के दौरान क्षेत्रीयता, जातीयता और धार्मिक ध्रुवीकरण से संबंधित बयानबाजी ने सामाजिक सौहार्द पर प्रश्नचिन्ह लगाया। भाषा केवल संवाद बात करने का माध्यम नहीं, बल्कि एक संस्कृति का प्रतीक है। राजनीति में भाषा का मर्यादित और गरिमापूर्ण होना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि नेता जनता के प्रतिनिधि और आदर्श माने जाते रहे हैं । जब राजनीतिक मंचों पर अमर्यादित भाषा का उपयोग होता है, तो यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है, बल्कि समाज में विभाजन घृणा और द्वेष को भी बढ़ावा देता है।
अमर्यादित भाषा को रोकने में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी अहम है। हालांकि, चुनाव आयोग समय-समय पर नेताओं को चेतावनी देता है और प्रतिबंध लगाता है, लेकिन यह उपाय स्थायी समाधान नहीं बन पाता हैं। राजनीतिक दलों को भी अपने सदस्यों को मर्यादित भाषा का उपयोग करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। तथा गलत भाषा के लिए उन पर सख्ती से कारवाई करनी चाहिए।
महाराष्ट्र और झारखंड चुनावों में यह स्पष्ट हुआ कि पार्टियों ने भाषा के स्तर पर संयम बरतने के बजाय अमर्यादित भाषा को चुनावी हथियार बनाया। सोशल मीडिया के युग में यह समस्या और गंभीर हो गई है, जहां ट्रोलिंग और भड़काऊ टिप्पणियों ने एक नई चुनौती खड़ी की है। भाषायी अमर्यादा का सबसे बड़ा नुकसान ये होता है कि यह समाज में असहिष्णुता वैमनस्य और द्वेष को बढ़ावा देता है। जब नेता सार्वजनिक मंच पर मर्यादित भाषा का उपयोग नहीं करते, तो उनके समर्थक भी अमर्यादित व्यवहार करने लगते हैं। और ऐसी चीजें भारतीय राजनीति में खासकर बिहार और यूपी में देखने को मिलती है। इससे समाज में संवाद का स्तर गिरता है और लोकतांत्रिक संस्कृति कमजोर होती है। राजनीति कभी मूल्यों और आदर्शों का मंच थी, जहां मुद्दों पर बहस होती थी। लेकिन अब यह व्यक्ति-आधारित आक्षेप और नकारात्मक प्रचार का माध्यम बन गई है। मुंबा देवी के शिवसेना उम्मीदवार साइन एनसी पर अमर्यादित भाषा का प्रयोग शिवसेना यूबीटी गुट के अरविंद सावंत ने किया तो भाषायी मर्यादा पर एक डिबेट छिड़ गया। मर्यादाहीन भाषा का इस्तेमाल केवल राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है, जो लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धांतों के खिलाफ है।
लोकतंत्र की असली ताकत जनता के पास है, और अगर जनता असंयमित भाषा के खिलाफ खड़ी हो जाए, तो राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति बदलनी होगी। नेताओं को यह समझना होगा कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक समाज की सोच और संस्कृति का प्रतिबिंब है। लोग अगर जागरूक हो गए तो नेता अपने आप को जरूर बदल लेंगे। महाराष्ट्र और झारखंड चुनावों के अनुभवों से यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए भाषा की मर्यादा का पालन अनिवार्य है। अगर राजनीति में शिष्टाचार और गरिमा को पुनः स्थापित नहीं किया गया, तो यह केवल लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आत्मा को भी नुकसान पहुंचाएगा। इसलिए लोगों से भी अपील है कि अमर्यादित भाषाओं को सहन न करें क्योंकि ऐसी भाषा सामाजिक सुचिता और समरसता के खिलाफ है। महाराष्ट्र और झारखंड चुनावों ने यह सिखाया कि लोकतंत्र की ताकत केवल संविधान और संस्थानों में नहीं, बल्कि राजनीतिक व्यवहार में भी निहित है। मर्यादित भाषा लोकतंत्र का गहना है, जिसे बचाने की जिम्मेदारी हर नेता, राजनीतिक दल और नागरिक की है। चुनाव आयोग को सख्त नियम बनाकर और उनका पालन कराकर यह सुनिश्चित करना होगा कि राजनीतिक विमर्श स्वस्थ और गरिमापूर्ण रहे।
भारत को अगर एक सशक्त लोकतंत्र बनाए रखना है, तो भाषायी मर्यादा को पुनः स्थापित करना अत्यावश्यक है।
रौशन कुमार पाण्डेय
राजनीतिक विश्लेषक
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