श्री राधा कृष्ण के युगल स्वरूप थे श्री कृपालु जी महाराज

Oct 15, 2024 - 15:04
Oct 15, 2024 - 17:42
 0  109
श्री राधा कृष्ण के युगल स्वरूप थे श्री कृपालु जी महाराज

जन्मदिन विशेष 

अशोक कुमार मिश्र 

जगद्गुरु 1008 स्वामी श्री कृपालु जी महाराज 102 वर्ष पूर्व सन 1922 में शरद पूर्णिमा के दिन ही इस धरा धाम पर आए थे. वह एक महान संत ही नहीं, भक्ति के परम आचार्य व विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु थे। काशीविद्वत्परिषत् द्वारा जगद्गुरु १००८ स्वामि श्री कृपालु जी महाराज को जो उपाधियों दी गई उनमे जगद्‌गुरूत्तम के साथ व्याकरण, न्याय मीमांसा आदि समस्त दर्शनों के सर्वश्रेष्ठ आचार्य के लिए "श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण", वैदिक दर्शनानुसार भगवत्प्राप्ति का सरलतम, सार्वभौमिक मार्ग प्रतिष्ठापित करने वाले सर्वश्रेष्ठ आचार्य के लिए "वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य", समस्त दर्शनों का शास्त्र वेद सम्मत समन्वय करने में पारङ्गत समन्वयवादी परमाचार्य के लिए "निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य", वेद सम्मत सनातन धर्म सुस्थापित करके जीवों को भक्तियोग द्वारा भगवान् की ओर ले जाने वाले भक्तियोग के परमाचार्य के लिए 

"सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्सम्प्रदायपरमाचार्य", दिव्य प्रेमानन्द में निमग्न श्रीराधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान् स्वरूप के लिए "भक्तियोगरसावतार", अनन्तानन्त भगवदीय गुणों एवं विभूतियों से ओतप्रोत के लिए "भगवदनन्तश्रीविभूषित" की उपाधि भी दी गई.

उन्होंने श्री राधा कृष्ण को पाने का सरल भक्ति मार्ग के साथ वेदों व शास्त्रों में छुपा हुआ भक्ति के रहस्य को भी बताया. जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को काशी विद्वत् परिषद् द्वारा 14 जनवरी, सन् 1957 में जगद्गुरु की मूल उपाधि से विभूषित किया गया था। उन्होंने 'प्रेम रस मदिरा', 'प्रेम रस सिद्धांत' और 'राधा गोविन्द गीत' जैसे अनेक दिव्य ग्रंथों की रचना की, जो संपूर्ण विश्व को भक्ति की राह दिखा रहे हैं। आपके द्वारा विश्व को दी गई अनमोल धरोहरों में प्रतापगढ़ में भक्ति धाम मनगढ़ स्थित - भक्ति मंदिर, मथुरा में वृन्दावन धाम स्थित - प्रेम मंदिर और बरसाना धाम स्थित - कीर्ति मंदिर आदि प्रमुख हैं। 

कृपालु जी महाराज के असंख्य भक्तों का कहना है कि शरद पूर्णिमा की परम रसमय रात्रि में जब श्यामल आकाश में 16 कलाओं से सुसज्जित अमृत चंद्रा प्रकाशमान होता है, तब गोलोक में श्याम सुंदर और श्री राधा अपने दिव्य रूप को धारण किए प्रकट होते हैं. जीव और ब्रह्म के मिलन की समस्त रात्रियां एकत्र होकर शरद पूर्णिमा की परम पवित्र मधुर व रसमय रात्रि में परिवर्तित हो जाती हैं तब श्री राधा कृष्ण जीवों को महारस का रस वितरित करते हैं. ऐसी ही एक महारास की रात्रि थी सन 1922 की शरद पूर्णिमा को जब श्री राधा कृष्ण के युगल स्वरूप ने मनगढ़ की धरती पर अवतार लिया.

16 वर्ष की किशोरावस्था में ही श्री महाराज जी चित्रकूट के वनों में चले गए थे. वहां वह भक्ति में नाचते - गाते थे तों कभी नाचते गाते मूर्छित होकर गिर पड़ते थे. वहां सारभंग मुनि आदि के आश्रमों में भ्रमण करने के बाद सन 1940 के श्रावण महीने में वह वृंदावन धाम पधारे. वहां उन्होंने भावपूर्ण संकीर्तन प्रारंभ किया. सन 1955 में श्री महाराज जी ने चित्रकूट में अखिल भारतीय भक्ति योग दार्शनिक सम्मेलन आयोजित किया. वहां उन्होंने अपनी अद्भुत विद्वत्ता से सबको अचंभित कर दिया. सन 1957 में उनके विलक्षण ज्ञान को परखने के लिए काशी विद्वत परिषद के 500 विद्वानों की टीम ने उनके विलक्षण ज्ञान को रखने के लिए आमंत्रित किया. श्री महाराज जी के प्रकांड ज्ञान के विराट रूप को देखकर समस्त विद्वत परिषद आश्चर्यचकित रह गया. इसके बाद 14 जनवरी 1957 में मकर संक्रांति के दिन काशी विद्वत परिषद के प्रधानमंत्री श्री राज नारायण जी शुक्ल ने श्री कृपालु जी महाराज को जगतगुरुत्तम पद स्वीकारने का अनुरोध किया और उन्हें भक्ति योग रसावतार जगद्गुरु 1008 श्री कृपालु जी महाराज की उपाधि से सुशोभित किया. मात्र 34 वर्ष की आयु में ही मनोहर व्यक्तित्व वाले श्री कृपालु महाप्रभु जगद्गुरु के पद पर आसीन हुए. जगद्गुरु बनने के बाद महाराज जी ने भक्ति आंदोलन को गति प्रदान की. 

श्री कृपालु जी महाराज की लेखनी अद्भुत हैं. उन्होंने सरल भाषा में कई ग्रंथ लिखे. उनकी पुस्तक प्रेम रस सिद्धांत तत्वज्ञान से भरपूर है. गागर में सागर भरे इस ग्रंथ में वेदों व शास्त्रों के प्रमाणों के अतिरिक्त कृपालु जी ने अपने अनुभव के आधार पर जीव का चरम लक्ष्य, जीव एवं माया तथा भगवान का स्वरूप, कर्म, ज्ञान, भक्ति, साधना आदि तमाम विषयों का निरूपण किया है एवं कर्मयोग सम्बन्धी प्रतिपादन पर विशेष जोर दिया हैं. इस पुस्तक के माध्यम से संसारी अपना कार्य करते हुए लक्ष्य प्राप्त कर सकता है. इसमें साधारण सरल भाषा में ब्रह्मतत्व, श्रीकृष्णातत्व, अवतारतत्व आदि का जिस प्रकार वर्णन किया गया है वह अतुलनीय है. वेदों व शास्त्रों का उदाहरण देते हुए वह कहते थे कि ईश्वर में मन एक कर देने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है. मानव देह पाकर यदि ईश्वर को नहीं जाना तो पुनः 84 लाख योनियों में चक्कर लगाना पड़ेगा. जीवो का स्वामी ईश्वर है. आत्मा रथी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है.बिना विश्वास के ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी व बिना उसकी प्राप्ति के परमानंद नहीं मिलता. शरणागति से ही ईश्वर की कृपा होती है. शरणागति के लिए यह आवश्यक है कि हम संसार का वास्तविक स्वरूप समझे एवं वहां से मन को उदासीन करें तभी ईश्वर शरणागति संभव है. महाराज जी कहते हैं कि वह अपने बच्चों को एक सेकंड भी अकेला नहीं छोड़ते, सदा साथ रहते हैं.

अशोक कुमार मिश्र 

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow