गुरु पूर्णिमा : शेष से शिष्यत्व
गुरु पूर्णिमा : शेष से शिष्यत्व

आचार्य संजय तिवारी
हिन्द भास्कर:- समस्त लोकों के आचार्य हैं ब्रह्मर्षि नारद। इस सृष्टि में जीवाचार्य है भगवान शेष। शेष की शय्या पर सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी समेत। जब संहार की बारी आती है तो तांडव करते शिव शेष को अपने गले मे सुरक्षित कर लेते। शेष , यानी जिससे अंश ग्रहण करने वाला शिष्य हो जाता है। शेष, जिसकी शिक्षा ही शिष्य बनाती है। शेष , यानी वह जिससे वास्तविक ज्ञान मिलते ही अज्ञान का अंधकार विलुप्त हो जाता है।
जब विष्णु शयन को जाते है तब शेष को स्थिर होकर उनको विश्राम देने के लिए अविचल होना पड़ता है। जितने समय तक शेष विष्णु को शयन कराते हैं, सृष्टि को पोषित करने की जिम्मेदारी भी शिव को वहन करनी पड़ती है। विष्णु शयन में है । जीवचार्य का दायित्व विष्णु को माता लक्ष्मी के साथ आराम देने का है। शिव अपने नए दायित्व में। गुरुपूर्णिमा शेष की साधना और आराधना का दिन है। शेष से प्राप्त शिक्षा से शिष्य बन चुके प्रत्येक जीव को अपने गुरु यानी आचार्य का वंदन करना है। गुरु पूर्णिमा का मतलब वह सब कदापि नही जिसको धरती पर टेलीविजन पर दिखाया जाता है।
शिष्य शब्द ही शेष से जुड़ा है। शेषांश ही शिष्य है। शेष स्वरूप जो है वह गुरु है। सनातन परंपरा में एक गुरु हुए, नानक देव। उनकी बड़ी शिष्य परमपरा हुई। शिष्य शब्द ही लोक भाषा मे सिक्ख हो गया। उनकी शिक्षा की भाषा गुरुमुखी हुई। उनकी आराधना का केंद्र गुरु की शिक्षा से आयोजित ग्रंथ बना। यह अलग विषय है कि कठिन साधना से सिंचित इस समस्त शिष्य परंपरा को कालान्तर की राजनीति ने एक अलग पंथ ही बना दिया। वैसे भी सनातन के सन्तो और सिद्ध गुरुओं की शिष्य परंपराओं ने ही नए नए पंथो को जन्म दिया है। राजनीति ने इसका समयानुकूल लाभ लेकर पंथो को अलग अलग मान्यताएं दे दीं। यहां विषय गुरुपूर्णिमा है।
इस अत्यंत महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तिथि को अवसर लोभी लोग औऱ समुदाय अपने ढंग से व्याख्यायित करने लगे। आधुनिक संचार माध्यमो ने इस अतिगंभीर परंपरा को ढोंगियों की स्थापना का पर्व बना दिया। इस बात को किसी ने समझाने की कोशिश नही की कि शिक्षक का मतलब गुरु नही होता। शिक्षक अपने ज्ञान से कुछ नही सिखाता। वह दिए गए एक पाठ्यक्रम को बता देता है। उसमें उसका कोई ज्ञान नही। कोई अर्जन नही। उसने वही अपने शिक्षक से सीखा। इसीलिए सम्बंधित विषय की शिक्षा देता है। प्रशिक्षक प्रशिक्षण देता है। परीक्षक परीक्षा लेता है, मूल्यांकन करता है। शिष्य तो कोई तब होगा जब वह खुद परीक्षित हो। परीक्षित एक पात्र हुआ है। सभी ने श्रीमद्भागवत में परीक्षित को पढ़ा होगा। वह परीक्षित क्यो है।
वह न तो किसी का छात्र है न परीक्षार्थी , पुष्ट परीक्षित है। सोचिये, आज गुरु बन कर जो लोग पैर धुलवा रहे है उनमें से किसी को एक परीक्षित बनाते देखा है क्या। वास्तव में सनातन संस्कृति की आचार्य परम्परा को ठीक से समझने की चेष्टा ही नही हुई। इसीलिए जिस किसी ने गुरु तत्व को समझ कर आगे कुछ करने की कोशिश की, उसके अनुयाइयों ने नया पंथ ही खड़ा कर दिया। वह चाहे नानक देव हों, बुद्ध हों या महावीर। परम्परा तो पश्चिम में भी है। सुकरात परम ज्ञानी माने गए। उनके शिष्य हुए प्लेटो के शिष्य अरस्तू। अरस्तू को आधुनिक जीव विज्ञान और राजनीति का परमज्ञाता माना गया। अरस्तू का शिष्य हुआ सिकंदर। ठीक उसी काल मे भारत मे कौटिल्य यानी चाणक्य हुए जिनके शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ने अखंड भारत का निर्माण किया।
इनसे पहले यहां महावीर और बुद्ध हो चुके थे। बुद्ध और महावीर से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व महानायक , महाक्रान्तिकारी, योगेश्वर भगवान कृष्ण ने धरती पर मानवता स्थापना कर दी थी। उस मानव संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए ही परीक्षित के माध्यम से श्रीमद्भागवत की आधार रचना हुई। ऐसे में बिना सनातन की सत्ता को समझे कोई गुरु तत्व को कैसे समझ और समझा सकता है। सनातन परंपरा कहती है -
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं।
जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।
अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,
चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः ।।
गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। कहा गया है कि जो विप्र निषक आदि संस्कारों को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह 'गुरु' कहलाता है। इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात् पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं। 'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची कालिकापुराण' में इस प्रकार दी हुई है-
अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा।
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥
कूर्मपुराण में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है:
उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:।
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु।
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:।।
युत्किकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण निम्नांकित कहे गये हैं-
सदाचार: कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थापारग:।
नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारक: शुचि:॥
अपर्वमैथुनपुर: पितृदेवार्चने रत:।
गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत सदा॥
दयावान शीलसम्पन्न: सत्कुलीनो महामति:।
परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विज:॥
अन्यैश्च वैदिकगुणैगुणैर्युक्त: कार्यो गुरुर्नृपै:।
एतैरेव गुणैर्युक्त: पुरोधा: स्यान्महीर्भुजाम्॥
मंत्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं:
शांतो दांत: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेशवान्।
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान॥
आश्रामी ध्याननिष्ठश्च मंत्र-तंत्र-विशारद:।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥
उद्धर्तुच्ञै व संहतुँ समर्थो ब्राह्माणोत्तम:।
तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुच्यते॥
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
अर्थात धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
अर्थात जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं ।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
अर्थात गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहीं बैठना चाहिए ।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
अर्थात बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
अर्थात प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है । ध्यान देने की बात है, ये गुरु नही हैं , गुरु के समान हैं।
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
अर्थात 'गु'कार याने अंधकार, और 'रु'कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
अर्थात शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
सनातन संस्कृति में केवल तीन देवताओ को गुरु स्वरूप स्थापना दी गयी है। ब्रह्मर्षि नारद और भगवान शेष के अतिरिक्त आदिदेव शिव और उन्ही के अंशावतार हनुमान जी। बृहस्पति देवताओ के और शुक्राचार्य असुरों के गुरु है। हनुमान जी स्वयं माता सीता को अपना गुरु मानते है। अब स्वयं सोचिये कि हर साल गुरु पूर्णिमा पर टेलीविजन के कार्यक्रमो में अपने पैर धुलवाकर आरती उतरवाने वाले वास्तव में यदि गुरु तत्व से परिपूर्ण हैं तो समाज की दुर्दशा ही क्यों है? एक विवेकानन्द तो दे देते।
गोस्वामी जी के शब्दों में
वंदउँ गुरु पद पदुम परागा।।
ॐ गुरुवे नमः।।
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