श्री हनुमान जयंती पर विशेष : एक कलियुग के कल्प वृक्ष हैं मानस के हनुमान जी

श्री हनुमान जयंती पर विशेष : एक कलियुग के कल्प वृक्ष हैं मानस के हनुमान जी

Apr 11, 2025 - 17:00
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श्री हनुमान जयंती पर विशेष : एक कलियुग के कल्प वृक्ष हैं मानस के हनुमान जी

आचार्य संजय तिवारी

हिन्द भास्कर:- श्रीरामचरित मानस केवल एक पुस्तक भर नहीं है। श्रुति, स्मृति , उपनिषद, इतिहास, विज्ञान और जीवन का यह वह दर्शन है जो भगवान शिव के मानस में रचा गया, गोस्वामी तुलसी दास जी की कलम से अवतरित हुआ। सनातन जीवन संस्कृति का यह आधार ग्रंथ है जिसे गोस्वामी जी के माध्यम से हमे प्राप्त हुआ है। यह ग्रंथ केवल कोई कथा कहानी भर नहीं है। यह साक्षात भगवान का शब्दविग्रह है।

श्री रामचरित मानस पर कुछ समय मे कुछ बातें कहने के लिए भी बहुत शक्ति और चिंतन की सामर्थ्य चाहिए। इस ग्रंथ के एक एक पात्र महत्वपूर्ण हैं। यदि नायक के रूप में भगवान श्रीराम हैं तो प्रतिनायक के रूप में महापंडित रावण भी है। दसों इंद्रियों पर सम्पूर्ण नियंत्रण रखने वाले चक्रवर्ती दशरथ जी हैं तो उसी अनुपात में दसगुना नियंत्रण रखने वाला दशानन है। भक्ति और पोषक के साक्षात विग्रह भरत जी हैं तो सेवा के प्रतिमूर्ति लक्षमण जी भी हैं। राम को भगवान राम बनाने के लिए स्वयं को खल पात्र बना लेने वाली माता कैकेयी हैं तो सूर्य उदय का मार्ग देने वाली पूरब दिशा के समान माता कौशल्या हैं।

सेवा और परिवार का आदर्श स्थापित करने वाली माता सुमित्रा हैं तो महा तपस्विनी उर्मिला भी हैं। जगजननी माता सीता तो इस ग्रंथ की आधार हैं। श्री हनुमान जी, जामवंत जी, सुग्रीव जी से लेकर महाराज जनक तक के बारे में केवल कह पाने भर से उनके साथ न्याय नही हो सकता। मानस के हनुमान जी को गोस्वामी जी ने कलियुग का कल्पवृक्ष बताया है। मानस के मनुष्य, जड़, स्थावर, पशु ,पक्षी, नदी, समुद्र, सेवक, नाविक से लेकर सम्पूर्ण परिवेश में जीवन के संदेश सुरक्षित हैं।मानस आदर्श मानव जीवन का महासमुद्र है जिससे प्रति पल कुछ सीखने को मिलता है।

गोस्वामी जी ने मानस को आकार देते समय जैसे सृष्टि का संविधान ही रच दिया है। उन्होंने विधि प्रपंच गुन अवगुन साना लिख कर यह पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि विधाता ने सृष्टि में सकारात्मक और नकारात्मक सभी प्रकार की रचनाओं को सान दिया है यानी एक ही धरातल पर उतार दिया है। इस तथ्य को गोस्वामी जी ने संत-असंत वंदना में ही प्रस्तुत कर दिया है। ग्रंथ के आरंभ में ही वह लिखते हैं-

बंदउँ संत असज्जन चरना।

दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।

मिलत एक दुख दारुन देहीं॥

अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना)

उपजहिं एक संग जग माहीं।

जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥

सुधा सुरा सम साधु असाधू।

जनक एक जग जलधि अगाधू॥

दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।

भल अनभल निज निज करतूती।

लहत सुजस अपलोक बिभूती॥

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू।

गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥

गुन अवगुन जानत सब कोई।

जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥

भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।

सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥

भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।

उभय अपार उदधि अवगाहा॥

तेहि तें कछु गुन दोष बखाने।

संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥

दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।

गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥

कहहिं बेद इतिहास पुराना।

बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥

भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती।

साधु असाधु सुजाति कुजाती॥

दानव देव ऊँच अरु नीचू।

अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥

माया ब्रह्म जीव जगदीसा।

लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥

कासी मग सुरसरि क्रमनासा।

मरु मारव महिदेव गवासा॥

सरग नरक अनुराग बिरागा।

निगमागम गुन दोष बिभागा॥

दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥

विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं।

अस बिबेक जब देइ बिधाता।

तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥

काल सुभाउ करम बरिआईं।

भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥

विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं।

दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥

खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू।

मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥

भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ।

बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥

उघरहिं अंत न होइ निबाहू।

कालनेमि जिमि रावन राहू॥

जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ।

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू।

जिमि जग जामवंत हनुमानू॥

हानि कुसंग सुसंगति लाहू।

लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥

बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्‌ और हनुमान्‌जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं।

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।

कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥

साधु असाधु सदन सुक सारीं।

सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥

पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते है।

धूम कुसंगति कारिख होई।

लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥

सोइ जल अनल अनिल संघाता।

होइ जलद जग जीवन दाता॥

कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥

ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।

होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥

ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥

महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥

मानस से आत्मसात करने योग्य बातें

रिश्ते क्या होते है, इसको मानस से सीखना चाहिए। पिता पुत्र, माता पुत्र, भाई भाई, बड़ा छोटा, आदेश और उसका निर्वहन।

मित्र धर्म

राम चाहते तो बाली से मित्रता करके रावण पर विजय पा सकते थे लेकिन उन्होंने सुग्रीव से मित्रता की और मित्र धर्म का पूरा निर्वहन किया। यहां तक कि सुग्रीव एक बार राम से किये अपने वादे को भूल भी गए लेकिन इसके बावजूद राम ने अपना धर्म निभाया और सुग्रीव को उनकी गलती का सलीके से आभास भी कराया।

सेवक का सम्मान

केवट ने बहुत जिद की थी। राम उस पर कुपित नहीं हुए बल्कि उसकी हर बात मानते गए। वह केवट को सजा भी दे सकते थे। केवट निषादराज गुह्य के राज्य में ही था लेकिन राम ने उसकी सेवा का सम्मान किया।

व्यक्ति का समाज से संबंध और दायित्व

सृष्टि और प्रकृति के मध्य समन्वय, मानव का पशु, पक्षी, प्रकृति से संबंध, आसुरी शक्तियों के नाश के लिए समाज के अग्रगण्य व्यक्तियों से लेकर आखिरी तबके तक को एकजुट करने का संदेश अपने हर कदम पर राम ने दिया है। अपने वनगमन के हर चरण में एक तरफ वह अपने से श्रेष्ठ ऋषियों मुनियों के आशीर्वाद ले रहे हैं और दूसरी ओर वनवासी समाज को जोड़ कर उन्हें भयमुक्त वातावरण उपलब्ध करा रहे हैं। वह समग्र वनक्षेत्र को ही आसुरी शक्तियों से मुक्त कर वनवासी समाज को सौप देते हैं। कही भी वह स्वयं राजा नहीं बनते बल्कि जिस समाज का सम्बंधित क्षेत्र है उसी में से राजा बनाते चलते हैं। यहां तक कि लंका का जीता हुआ राज्य भी वह विभीषण को सौंपते हैं।

जटायु और शबरी प्रसंग

जटायु गीध हैं। पक्षी हैं लेकिन राम उनको परमधाम में स्थापित करते हैं। शबरी स्वयं को अधम कह रही है लेकिन राम उसे भामिनि कह कर संबोधित करते हैं। यह वह संबोधन है जिसका प्रयोग उन्होंने अपनी माता के लिए किया है। प्रेम भक्ति और ईश्वर की आस्था के साथ समाज मे निम्नतर माने गए को श्रेष्ठतर साबित करने का चरित्र अद्भुत है।

स्त्री और दलित का सम्मान

पक्षियों में चांडाल कहे जाने वाले कौवे द्वारा रामकथा का व्याख्यान और श्रोता में पक्षियों के राजा , यह मानस की बहुत बड़ी शिक्षा है। यहां ज्ञान को भरपूर सम्मान है। इस सम्मान में कोई जाति, वर्ण या वय का भेद नहीं है। आज भी कोई कितना ही दलित और नारी विमर्श की बात करता हो लेकिन किसी दलित स्त्री का जूठन नही खा सकता। राम ने शबरी का जूठन खाया।

इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता है। राम राजा भी थे और उनके पास अनेक सेवक और तब तक वनवासियों की बहुत बड़ी सेना भी तैयार थी। वह शबरी को अपने पास भी बुलवा सकते थे। उसका जूठन नहीं भी खाते तो कोई प्रश्न नही उठता।

आदर भाव

आदर भाव तो मानस की आत्मा है। मानस का नायक समाज के सभी श्रेष्ठ लोगो का अत्यंत आदर कर रहा है। सभी ऋषियों और मुनियों के साथ संत जनों को राम बहुत आदर देते हैं। यहां तक कि परशुराम के क्रोध के बीच भी राम ने उन्हें केवल आदर ही दिया है। बाल्मीकि और भारद्वाज को दंडवत करते हैं। शरभंग जी को स्वयं अग्निदान कर बैकुंठ भेजते हैं।

बचन निर्वहन

मानस में वचन की महत्ता, क्षत्रिय धर्म की महत्ता और कुल की महत्ता को तुलसीदास जी ने बहुत महत्व दिया है। रघुकुल रीति सदा चलि आयी, प्राण जाय पर वचन न जाई- यह प्रसंग ही स्वयं में जीवन का सार प्रस्तुत कर देता है। मानस को लेकर प्रश्न करने वालों को राम और शबरी के प्रसंग को ध्यान से पढ़ना चाहिए। राम-शबरी संवाद में जो नवधाभक्ति सूत्र गोस्वामी जी ने दिए हैं, वही सब सवालों का जवाब है। राम चरित मानस के अरण्य कांड में दोहा संख्या 34,35,36 के मध्य की जो चौपाइयां हैं, इसमें इसका पूरा वर्णन है। इसमें गोस्वामीजी ने बड़े भाव से शबरी के संकोच को प्रदर्शित किया है जिसमें शबरी भगवान से कहती हैं कि वो कैसे उनकी भक्ति प्राप्त कर सकती हैं जबकि वो जाति से अधम और मति से भी जड़ हैं। शबरी कहती हैं-

केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी,

अधम जाति मैं जड़मति भारी।

शबरी के इस सवाल के जवाब में गोस्वामी जी भगवान श्रीराम से उत्तर दिलवाते हैं कि राम को जाति-पांति के भेदभाव का कोई सवाल भक्ति के मामले में मंजूर नहीं है। राम कहते हैं-

कह रघुपति सुनु भामिनी बाता।

मानऊं एक भगति कर नाता।।

जाति-पाति कुल धर्म बड़ाई।

धन बल परिजन गुन चतुराई।।

भगति हीन नर सोहइ कैसा।

बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

नवधा भगति कहऊं तोहि पाहीं।

सावधान सुनु धरू मन माहीं।।

पहली बात तो राम के जरिए गोस्वामी जी शबरी के लिए अत्यंत आदरसूचक भामिनी संबोधन देते हैं। कहते हैं कि जात-पांत, परिवार, कुल, गोत्र, पैसा, पावर, परिवार, बुद्धि और चतुराई जैसी बातों का मेरे लिए कोई मतलब ही नहीं है। क्योंकि जिस मनुष्य में भक्ति नहीं है, श्रद्धा नहीं है, उसकी किसी बात का वैसे ही कोई महत्व नहीं है जैसे बिना जल के बादलों का। मतलब है तो केवल प्रेम का, श्रद्धा का, भक्ति का। ईश्वर से नाता जोड़ने के लिए यही चीजें महत्व रखती हैं। इसमें जाति का कोई मतलब नहीं है।

नवधा भगति के सूत्रों को भारत के आध्यात्मिक जगत में बड़े आदर के साथ सुनाया जाता है जो सूत्र शबरी और शाबर संप्रदाय से जुड़े हैं। शायद उन्हें शाबर संप्रदाय से ही गोस्वामी जी ने उठा लिया। इसमें कहा गया है -

1-पहली भक्ति संतों का सत्संग है। और संतों की कोई जाति नहीं होती। जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान। यही लोक परंपरा कहती है। इसी लोक को तुलसी अपनी आंखों के सामने रखते हैं और आगम-निगम यानी आगम मतलब लोकमान्यताओं और निगम मतलब शास्त्र को साथ लेकर चलते हैं।

2-नवधा भक्ति का दूसरा सूत्र है कि भगवान की कथा चर्चा जहां हो वहां मन लगाओ, जिस रूप में हो, उसे सुनो, उस पर ध्यान दो। आध्यात्मिक बातों और धर्ममय चरित्र पर चलने का यहां बड़ा महत्व है। प्रथम भगति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।

3-अपने जो गुरु हैं, उनकी सेवा करो, यही तीसरी भक्ति है।

4-भक्ति में कपट, छल मत करो और शुद्ध भाव से करो। कोई न कोई मंत्र नियमित जपो और ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखो। गुरु पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान, चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।..मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा।

5-पंचम भजन सो बेद प्रकासा

6-छठ दम सील बिरत बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धरमा। पांचवीं भक्ति के बारे में कहा है कि परमात्मा का भजन करो, उनका सुमिरन करो, उनके गीत गाओ, हो सके तो इसी भजन मार्ग से वेद के ज्ञान का प्रसार करो।

छठी भक्ति का सूत्र वही है जो भगवान बुद्ध ने भी बताया है कि दम और शील को धारण करो। यानी आत्म नियंत्रण रखो और जीवन में शुद्ध चरित्र को महत्व दो। बहुत सारे विषयों में एक साथ मत फंसो। जो सज्जन हैं, उनका साथ करो, सज्जनों के धर्म मार्ग पर चलो।

7-सातवं सम मोहि मय जग देखा, मोतें संत अधिक करि लेखा सातवां भक्ति सूत्र सब सवालों का जवाब है जिसमें गोस्वामी जी कहते हैं कि सारे जगत को राम मय ही देखो। और उसमें भी संतों की बात को सबसे ज्यादा महत्व दो। यही कबीर कहते हैं कि राम को महत्व दो। संतों भाई आई ज्ञान की आंधी रे। देश और मानवता को संत ही संभालते हैं और मार्गदर्शन करते हैं।

8-आठवं जथा लाभ संतोषा, सपनेहुं नहिं देखइ परदोषा। आठवां भक्ति सूत्र और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि कर्म तो पूरी ईमानदारी से करो किन्तु जो भी लाभ हो या न हो उसमें संतोष करो। और जीवन में कर्म करते समय दूसरे लोगों में दोष को मत खोजो। हमेशा कमियां खुद में देखो और दूसरों के लिए अच्छे शब्दों का ही इस्तेमाल करो।

9-नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियं हरष न दीना।। नौवां भक्ति सूत्र भी अद्भुत है कि सबके साथ अति सरल भाव से रहो और किसी के साथ छल और कपट मत करो। राम नाम पर दृढ़ भरोसा रखो और मन में किसी प्रकार का अवसाद मत आने दो, सदा खुश रहो, हर हाल में खुश रहना सीखो।

नव महुं एकउ जिन्हके होई, नारि पुरुष सचराचर कोई, सोई अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। अब यहां गोस्वामी जी रचित रामचरित मानस में भगवान के साथ शबरी की इन नौ विशेष भगति सूत्रों पर चर्चा हुई। गोस्वामी जी इसका सार संक्षेप लिखते हैं कि इसमें से नौ की नौ तो छोड़िए, कोई मनुष्य एक सूत्र को भी यदि जीवन में पाल ले तो चाहे वो स्त्री हो या पुरुष किसी जाति का हो, वही ईश्वर का सबसे प्रिय बन जाता है।

गोस्वामीजी के मौलिक चिंतन में तो भक्ति भेदभाव नहीं कर सकती है। नवधा भक्ति सूत्र लिखने वाले गोस्वामी जी फिर कैसे भेदभाव की बात कर सकते हैं? गोस्वामी तुलसी दास के जीवन की यथार्थ और कटु सच्चाई तो यही है कि उनकी मां उन्हें जन्म देते ही परलोक सिधार गई। उनके ज्योतिषी पिता ने ग्राम पर किसी आपदा के आने की भविष्यवाणी देखते हुए उन्हें पड़ोसी गांव की एक शूद्र महिला को पालन-पोषण के लिए दे दिया। उनका बचपन तो एक शूद्र अर्थात आज की प्रचलित परिपाटी के अनुसार अनुसूचित या दलित महिला की गोद में ही पला-बढ़ा। क्योंकि उनके पिता का भी कुछ ही दिनों में निधन हो गया और गांव भी शायद गंगा की बाढ़ में या मुगल सेना की लूट की भेंट चढ़ गया। इन बातों का ब्यौरा गोस्वामी तुलसी दास ने स्वयं ही अपने अनेक पदों में दिया है।

तनु तज्यो कुटिल कीट ज्यों.. 

अर्थात पिता ने तो कोई कुटिल कीड़ा समझकर ही फेंक दिया था लेकिन हे राम तुम्हारी कृपा ने इस तुलसी को नवजीवन दे दिया। नवधा भक्ति सूत्र के अंत में गोस्वामी तुलसी दास लिखते हैं कि किसी भी जाति के नर नारी को छोड़िए, समस्त चर-अचर जीव जगत में कोई भी राम की ओर देखता है तो उसके जीवन में बदलाव आने लगता है।

सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई, तो कहुं आजु सुलभ भइ सोई।।

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।

भगवान का दर्शन मात्र जीव को उसके उसी सहज रूप से मिलाता है जो वस्तुतः राम का ही रूप है।

सियाराममय सब जग जानी, करऊं प्रणाम जोरि जुग पानी।

यानी सारे संसार में सीता-राम का रूप देखो, दोनों हाथ उठाकर सबको प्रणाम करो क्योंकि हर किसी में अंतर्यामी रूप में वही सीताराम बसते हैं।

ढोल, गंवार, शूद्र ,पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी।।

यह प्रसंग आजकल चर्चा में है। चर्चा करने वाले यह नहीं बता रहे कि यह बात कही है समुद्र ने। किस संदर्भ में यह बात आई है उसके बारे में भी विचार करना चाहिए। ताड़ना शब्द अवधी का है जिसका अर्थ होता है गहराई से समझने योग्य। इसका अर्थ प्रताड़ना तो किसी भी हाल में नहीं है। रामचरित मानस की भाषा अवधी है। अयोध्या से बस्ती के बीच जो लोग रहते हैं उनकी लोकभाषा में ताड़ना शब्द बार बार आता है। ढोल को ताड़ने का क्या मतलब हो सकता है।

गंवार तो ब्राह्मण भी हो सकता है। शूद्र तो वर्ण है कोई जाति नहीं है। प्राचीन काल से चारों वर्ण एक दूसरे पर ही आश्रित हैं। भारत में प्राचीन काल से सभी में परस्पर प्रेम रहा है, ऐसा नहीं होता तो भारत में 6 लाख से ज्यादा गांव बसे तो इनमें एक भी गांव किसी एक जाति या किसी एक वर्ण का नहीं है। हर गांव में सभी वर्णों के लोगों की बसावट साथ-साथ सोच-समझकर रखी गई। एक गांव को कुटुंब ही माना गया है। इसमें सबके अधिकार और कर्तव्य निर्धारित थे। और पशु में गौ है जिसे भारत ने परंपरा से माता का दर्जा दिया है। बुद्ध ने भी गौ की महिमा गाई और भिक्षुक को चीवर और गोमूत्र-ओषधि आदि के सेवन का मंत्र दिया।

नारी तो माता ही है, गोस्वामी जी तो जगत जननी के रूप में माता सीता को ह्रदय में रखते रहे। वह नारी के बारे में अशोभनीय बात कैसे लिख सकते हैं। इसलिए गोस्वामी जी के बारे में या राम चरित मानस के बारे में बुद्धि और तर्क से विचार किया जाना चाहिए। इसमें किसी दुष्प्रचार का हिस्सा नहीं बनना चाहिए ।

ब्राह्मण सबका है और सबके लिए है, जैसे सभी वर्ण सभी के लिए हैं। उसे जो स्थान मिला वह भारत के समाज ने दिया है। जो कार्य उसने किया वह भी इसी समाज के कारण उसने किया है। शेष समाज से अलग होकर उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

पूजहिं विप्र सकल गुण हीना।

ब्राह्मण को सात्विक, राजसिक, तामसिक तीनों ही गुणों से परे जाना होगा, तभी वह पूज्य है, अन्यथा नहीं है। ब्राह्मण की यात्रा गुणों में उलझने की नहीं है, उसे समस्त गुणों से मुक्त होकर उस मार्ग पर जाने का प्रयास करना चाहिए जबकि वह सभी गुणों से परे होकर उस एक अखंड सच्चिदानंद परमात्मा में लीन हो जाता है। यही धर्म या धम्म मार्ग भी है। यही ब्राह्मणत्व है कि वह संपूर्ण समाज को स्वयं में धारण कर चले, समाज की आत्म शक्ति को जगाए, उसके मन में, जीवन में अच्छाई का प्रचार और प्रसार करे।

उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोके, उनकी शिक्षा का प्रबंध करे और बदले में कोई शुल्क नहीं ले और जिस तरह से समाज उसे रखे, उसी तरह से रहे। भिक्षा ही उसके जीवन का आधार प्राचीन समय से रहा है। बुद्ध ने भी अपने भिक्षुकों के लिए कठोर ब्राह्मण जीवन के आदर्श को ही सामने रखा था। वास्तव में यही भारत है और यही भारत होने की कथा है।आधुनिक समझने वाले कुछ लोग इसे न सुनना चाहते हैं और ना ही समझना। जब तक समझने का उनका मन होगा, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी।

भारत को तोड़ने की शक्तियां तब तक शायद अपनी साजिशों में गहरे सफलता प्राप्त कर चुकी होंगी। हमें इसकी चिंता इसलिए नहीं होती क्योकि इन साजिशों के समय में भी भारत के नायक स्पष्ट सामने दिखाई देते हैं। जैसे आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि दुष्ट शक्तियों, घातक और हिंसक प्राणियों, सर्प आदि की भयानक आतंकी वृत्तियों की चली होती तो यह संसार कब का समाप्त हो गया होता, किन्तु अनेक ज़हरीले जीवों के होते हुए भी यह संसार अपनी शांति और आनंदमय गति से चलता आया है तो कोई न कोई तो बात है जो संसार की गति को संतुलित रखती है।

उसी बात का और उम्मीद का आसरा लेकर आगे बढ़िए, किसी की भड़काऊ बातों पर मत जाइए, कोई आग लगाए तो उसे बाल्टी भर ठंडा पानी भी दे दीजिए कि कुछ पी लो और कुछ आग पर डाल सको तो डाल दो। बहुत गहरी शांति की जरूरत है। अपनी शांति को और समाज की एकता पर छिन्न-विछिन्न करने के लिए जो कुटिल सोच लेकर जो आग लगाने की हरकतें कर और करवा रहे हैं, उनकी किसी साजिश में उलझने की कोई जरूरत नहीं है। शांति और धीरज का परिचय देते हुए सामाजिक समरसता और एकता के लिए शांत मन से आगे बढ़ेंगे तो सदा ही जैसे विजय मिलती रही है, तो आगे तो और अधिक प्रचंड विजय ही विजय मिलने का रास्ता साफ हो रहा है। मानस के माध्यम से गोस्वामी जी ने पहले ही कह दिया है-

सीय राम मय सब जग जानी।। जय तुलसी दास जी और जय जय सियाराम।।

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