सनातन संस्कृति में कुम्भ महापर्व की पृष्ठभूमि

Jan 29, 2025 - 14:19
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सनातन संस्कृति में कुम्भ महापर्व की पृष्ठभूमि
डॉ0 कृष्ण मुरारी मणि त्रिपाठी दर्शन विभागाध्यक्ष श्री जो0 म0 गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी

सनातन धर्म में प्राणी मात्र के कल्याण हेतु वेद, पुराण, धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र आदि शास्त्रो में अनेकों उपाय बताए गए हैं। जिसमें मानवमात्र के पाप-ताप को समाप्त कर उन्हें सभी प्रकार से सुख-शान्ति को प्राप्त कराने के लिए ही 'कुम्भ' की उत्पत्ति हुई है। इसके महत्त्व के सम्बन्ध में वेदों से लेकर सामान्य धर्मग्रन्थों मे अनेक प्रमाणवाक्य उपलब्ध हैं। यही कारण है कि आज वर्तमान कलिकाल में भी कुम्भ-पर्व के समय प्रयागराज आदि तीर्थस्थानों में करोड़ों मनुष्यों की अपार भीड़ होती है। किन्तु यह सब होते हुए भी आज हमारे धार्मिक-समाज की यह स्थिति है कि वे जिस कुम्भ-पर्व आदि में श्रद्धा-भक्ति-पुरस्सर सम्मिलित होते हैं उसके महत्त्व और रहस्य को ठीक-ठीक नहीं जानते, जिससे वे लोग पर्व के लाभों के पूर्णतया समीप नहीं पहुँचते हैं।

     कुम्भ-पर्व का उद्देश्य - हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार कुम्भ-पर्व निर्णीत स्थानों में कुम्भ-योग के समय तत्तत्सम्प्रदाय सम्मानित साधु-महात्माओं के समवाय द्वारा संसार के सम्पूर्ण कष्टों के निवृत्यर्थ देश, समाज, राष्ट्र, और धर्म आदि समस्त विश्व के कल्याण-सम्पादनार्थ निष्काम भावनापुरस्सर वेदादि शास्त्रानुकूल अमूल्य दिव्य उपदेशों से जगत्कल्याण करना ही कुम्भ-पर्व का उद्देश्य है ।

   चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि ।' (अथर्व० ४।३४।७) ब्रह्मा कहते हैं- 'हे मनुष्यो ! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखों को देनेवाले चार कुम्भ-पर्वो का निर्माण कर चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक) में प्रदान करता हूँ।'

गङ्गाद्वारे प्रयागे च धारा-गोदावरीतटे । कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः ॥ अर्थात 'गङ्गाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग, धारानगरी (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) में शङ्करादि देवगण ने 'कुम्भयोग' कहा है

मेषराशिंगते जीवे मकरे चन्द्र भास्करौ । अमावास्या तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थनायके ।। (स्क० पु०) अर्थात 'जिस समय बृहस्पति मैपराशि पर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशि पर हो-तो उस समय तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ-योग होता है।'  

अथवा मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च बृहस्पतौ । कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यतिदुर्लभः ।। 

प्रयाग में कुम्भ के तीन स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भ का प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति (मेषराशि पर बृहस्पति का संयोग होने पर) से प्रारम्भ होता है। द्वितीय स्नान (प्रधान स्नान) माघ कृष्ण मौनी अमावास्या को होता है। तृतीय स्नान माघ शुक्ला वसन्तपञ्चमी को होता है। इन तीनों स्नानों में सर्वप्रथम स्नान निर्वाणी अखाड़े का, द्वितीय स्नान निरञ्जनी अखाड़े का और तृतीय स्नान जूना अखाड़े का होता है। पश्चात् समस्त सम्प्रदाय के लोगों का होता है।

     जिस 'कुम्भ-पर्व' का उल्लेख वेदों और पुराणों में मिलता है, उसकी प्राचीनता के सम्बन्ध में तो किसी को सन्दिग्ध होने का अवसर ही नहीं प्राप्त हो सकता। किन्तु यह बात अवश्य विचारणीय है कि - कुम्भ मेले का धार्मिकरूप में संसार के लोगों में प्रसार करने का श्रीगणेश किसने किया ? इस विषय में अन्वेषण करने पर सिद्ध होता है कि कुम्भमेले को प्रवर्त्तित करने वाले भगवान् शङ्कराचार्य हैं। अतः इस पर्व के प्रवर्तक आदि शङ्कराचार्य ही हैं। उन्होंने कुम्भ-पर्व के प्रचार की व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृति को सुदृढ़ रखने के लिए तथा जगत्कल्याण की दृष्टि से किया था। उन्हीं के आदर्शानुसार अद्यावधि कुम्भपर्व के चारों सुप्रसिद्ध तीर्थों में सभी सम्प्रदाय के साधु-महात्मागण देश-काल-परिस्थिति अनुरूप लोककल्याण की दृष्टि से धर्म-रक्षार्थ धर्म का प्रचार करते हैं जिससे सभी जाति और सभी सम्प्रदाय का कल्याण होता है। 

भगवान् आदि शङ्कराचार्य जी के कुम्भ-प्रवर्त्तक होने के कारण ही आज भी कुम्भ का मेला मुख्यतः साधुओं का ही माना जाता है। वस्तुतः साधु-मण्डली ही कुम्भ का जीवन है। भगवान् शङ्कराचार्य जी ने जिस महान् सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए कुम्भपर्व को प्रवर्त्तित किया था, आज उसमें आवश्यकता से अधिक जो कमी आ गई है वह किसी से छिपी नहीं है। अतः प्रत्येक मनुष्य को विशेषतः शङ्कराचार्यस्वरूप साधु-महात्माओं को चाहिए कि पुनः भगवान् शङ्कराचार्यजी के सदुद्देश्य की पूर्ति में मनसा, कर्मणा, वाचा प्रवृत्त होकर अपना और देश का कल्याण कर कुम्भपर्व के महत्त्व को सुरक्षित रक्खें ।

       आदि शंकराचार्य जी ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए दशनामी संन्यासी संप्रदाय की स्थापना की थी. जिसमें पश्चिम में द्वारिका पीठ पूर्व में गोवर्धन पीठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शारदा पीठ की स्थापना की और देश भर के संन्यासियों को दस पद नाम देकर संगठित किया यही दशनामी संन्यासी कहलाये। तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी ये दस नाम हैं।

      सामान्य रूप से कुम्भ का अर्थ है- घड़ा या कलश, किन्तु ज्योतिषशास्त्र में कुम्भ को राशि के अर्थ में भी प्रयोग होता है। कुम्भ पर्व के सन्दर्भ में, इसका ज्योतिषशास्त्रीय अर्थ ही ग्रहण किया जाता है। इसके अतिरिक्त कुम्भ शब्द का प्रयोग कुछ अन्य व्यापक सन्दर्भों में भी किया जाता है। हमारे पूर्वज ऋषि-महात्माओं ने कुम्भ के स्वरूप में जिन अन्य दिव्य वस्तुओं के समाहित होने की कल्पना की है उनमें विभिन्न देवी-देवताओं," बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदाओं तथा ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न स्रोतों आदि की सुन्दर कल्पना शामिल है।

      ऊपर से नीचे तक कुम्भ या कलश की बनावट में विभिन्न देवी-देवताओं के स्थित होने की कल्पना की गयी है। ऐसी लोकमान्यता है कि कलश के मुख में श्री विष्णु, कण्ठ में श्री शिव तथा एकदम निचले अर्थात् तल भाग में श्री ब्रह्मा का निवास है। इसके अतिरिक्त कलश के मध्य भाग में अन्य देवी-देवता, समस्त समुद्र, पर्वत, सम्पूर्ण पृथ्वी तथा चारों वेदों की स्थिति मानी गयी है। इस प्रकार हमारे समाज में कुम्भ पर्व का धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है।

      कुम्भ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी रही है - कान्यकुब्ज अथवा कन्नौज के शासक महाराज हर्षवर्द्धन के साथ भी कुम्भ का इतिहास जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सम्राट् हर्षवर्द्धन प्राचीन भारत के अन्तिम शासक थे। उनकी वीरता, दानशीलता तथा लोकप्रियता जगत्प्रसिद्ध थी । महाराज हर्षवर्द्धन कुम्भ के अवसर पर प्रयाग में ही वास करते थे और वहाँ सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन कर सभी मतावलम्बियों के विचार सुनते थे। देश की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से इस सर्वधर्म सम्मेलन का बहुत महत्त्व था ।

    धार्मिक सहिष्णुता के साथ-साथ महाराज हर्षवर्द्धन अपने मानवीय संस्कारों एवं दानशीलता के लिए भी लोकप्रसिद्ध थे। कुम्भ के पर्व पर वे अपना सर्वस्व दान कर देते थे । इसका बड़ा ही मार्मिक वर्णन सुप्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण में मिलता है। उसने लिखा है कि देवी-देवताओं के पूजन के बाद महाराज ने समाज के सभी वर्गों के लोगों को मुक्तहस्त से दान दिया। उन्होंने इतनी अधिक सम्पत्ति लुटाई कि गरीब अनाथों ने भीख माँगना छोड़ दिया। बिना किसी क्लेश के सम्राट् हर्षवर्द्धन ने अपना समूचा कोष प्रयाग कुम्भ के अवसर पर इस तपोभूमि में खाली कर दिया। यहाँ तक कि जब उनके पास दान में बाँटने के लिए कुछ नहीं रहा तब उन्होंने अपने वस्त्राभूषण तथा मुकुट तक को उतार कर दान कर दिया। इस प्रकार जब उनके शरीर पर एक वस्त्र भी नहीं बचा तब उनकी बहन राज्यश्री ने उन्हें पहनने के लिए वस्त्र दिये। जनता सम्राट् की इस दानशीलता को देखकर अवाक् रह गयी और सर्वत्र उनके सद्गुणों एवं कीर्ति का गान होने लगा। बाद में महाराजा के इस आदर्श चरित्र को देखकर विभिन्न प्रदेशों से आए सामन्तों और राजाओं ने विभिन्न उपहार देकर उनके खाली कोष को पुनः भरा । महाराज हर्षवर्द्धन के त्याग और दान की यह प्रेरक परम्परा तबसे अब तक अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है।

       कुम्भ पर्व के उत्पन्न होने की पैराणिक कथा अत्यन्त रोचक है। कहा जाता है कि एक बार देवताओं और असुरों ने आपस में मिलकर समुद्र-मंथन करने का निश्चय किया । इसके लिए उन्होंने मन्दराचल का मथनी और बासुकि का रस्सी के रूप में प्रयोग किया । समुद्र-मन्थन से उत्पन्न भीषण शब्दों से तीनों लोक काँप उठे और स्वयं समुद्र विह्वल हो उठा । समुद्र में रहने वाले विभिन्न जीव-जन्तुओं के हाहाकार से द्रवित होकर समुद्र ने चिरकाल से छिपाए गये अमृत को देवासुरों को समर्पित कर दिया ।

     अमृत का सुनहला कलश या कुम्भ जो भी समुद्र के जल से बाहर निकला उसी समय सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी। अमृतकलश की मंगलमय ज्योति की छटा देखकर देवता और असुर हर्षोन्मत्त हो उठे। अमृत को पहले पाने के लिए उनमें होड़ मच गयी । तभी इन्द्र ने अपनी कूटनीतिक बुद्धि का प्रयोग किया। असुरों को अमृतकलश से वंचित करने के लिए उन्होंने अपने पुत्र जयन्त को संकेत किया कि वह कलश लेकर भाग जाए । जयन्त ने ऐसा ही किया। यह देखकर असुर व्याकुल हो उठे। उस समय शस्त्रहीन होने के कारण वे युद्ध भी नहीं छेड़ सकते थे । अतः उन्होंने अपने कुलगुरु शुक्राचार्य की शरण ली ।

       शुक्राचार्य ने ध्यानावस्थित होकर असुरों को बताया कि इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश लेकर पूर्व दिशा की ओर भाग रहा है। तुम लोग दौड़कर उसे पकड़ लो और बल-पूर्वक कलश छीन लो। प्रचण्ड शक्ति वाले असुरों ने पूर्व दिशा की ओर वेग से दौड़ते हुए जयन्त को ललकारा । असुरों को जयन्त की ओर झपटते देख देवताओं ने भी उनका पीछा किया। जयन्त असुरों की पकड़ में आने ही वाले थे कि देवगण भी वहाँ पहुँच गये । उनमें आपस में युद्ध छिड़ गया । पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार देवताओं एवं असुरों का यह युद्ध बारह दिन तक चला । ये बारह दिन हमारे इस भौतिक संसार के बारह वर्ष के बराबर थे ।

     बारह दिन के उस भीषण देव और असुर संग्राम में अमृत कलश के लिए छीना-झपटी होती रही, लेकिन देवताओं द्वारा उत्पन्न विविध विघ्नों के कारण असुर अपने प्रयास में सफल नहीं हुए। कलश की इस छीना-झपटी में जयन्त ने पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर डाली। इस बीच उन्होंने चार स्थानों पर कुछ-कुछ क्षणों के लिए रुक कर विश्राम किया । ये चार स्थान हैं - हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन । विश्राम के दौरान जयन्त ने इन चारों स्थानों पर अमृत-कलश को रखा। अमृत-कलश को रखने की उस पवित्र स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ही हमारे पूर्वजों ने इन चारों तीर्थों में कुम्भ महापर्व के आयोजन का विधान बनाया। तभी से कुम्भ पर्व मनाने की यह परम्परा आज तक बनी हुई है। पूर्व की कथा के अनुसार देवों और असुरों की इस आपसी लड़ाई को शान्त करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी स्त्री का रूप धारण किया और अपनी बौद्धिक कुशलता से उस अमृत को देवों को पिला दिया। इस प्रकार इस देव और असुर संग्राम में देवताओं की विजय हुई और असुरों की हार । देव जरा-मृत्यु से ऊपर उठकर अजर-अमर हो गये और असुर ज्यों के त्यों बने रह गये ।

           कुछ अन्य पौराणिक ग्रन्थों में यह कथा थोड़े प्रकारान्तर के साथ भी मिलती है। कुछ स्थलों पर ऐसा वर्णन मिलता है कि समुद्र-मन्थन से प्राप्त अमृत कलश को जयन्त नहीं अपितु बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि लेकर भागे थे जबकि कुछ अन्य वर्णनों के अनुसार इन देवों ने कलश की रक्षा में जयन्त की सहायता की थी। इसी प्रकार कुछ पुराणों में ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि अमृत कलश की छीना-झपटी में कलश से छलककर अमृत की कुछ बूंदें प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में गिरी थीं। इसीलिए इन स्थानों पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।

    कुम्भ की पौराणिक कथा से स्पष्ट होता है कि 'कुम्भ' शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थों में सागर-मन्थन से प्राप्त अमृत कलश के लिए ही किया जाता है। असुरों से कलश की रक्षा के लिए भागते समय इन्द्रपुत्र जयन्त ने उसे पहले हरिद्वार के ब्रह्मकुण्ड पर रखा, फिर प्रयागराज में त्रिवेणी पर, फिर उज्जैन या धारानगरी में क्षिप्रा नदी के तटे पर रखा तथा चौथे और अन्तिम बार नासिक में गोदावरी नदी के तट पर उसे अवस्थित किया। इन चार प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों पर अमृत कलश रखने की पावन स्मृति में ही बारी-बारी से यहाँ कुम्भ महापर्व का आयोजन होता है। चूँकि जयन्त कलश या कुम्भ को लेकर देवलोक के बारह दिनों तक पृथ्वी की परिक्रमा करते रहे थे, इसलिए कुम्भ का पर्व भी इन बारह दिनों से जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः कुम्भका पर्व हर बारहवें वर्ष पर पड़ता है। जयन्त द्वारा चार तीर्थ स्थानों पर कलश रखने के क्रम के अनुसार ही कुम्भ पर्व का क्रमशः आयोजन होता है। पहले हरिद्वार में कुम्भ मनाया जाता है, उसके तीन वर्ष बाद प्रयाग में, फिर उसके तीन वर्ष बाद उज्जैन में और फिर उसके तीन वर्ष बाद नासिक में। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है और इस प्रकार हर बारहवें वर्ष बाद इन चारों पुण्यस्थलो में कुम्भ का पर्व क्रमशः आयोजित होता रहता है। हर बारहवें वर्ष पड़ने वाले कुम्भ को पूर्ण कुम्भ कहा जाता है, किन्तु हरिद्वार और प्रयाग में अर्द्धकुम्भ मनाने की भी प्रथा है, जो हर छठे वर्ष पड़ता है। अर्द्धकुम्भ का भी पूर्ण कुम्भ की ही तरह विशेष धार्मिक महत्त्व है ।

       राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता में कुम्भ पर्व की भूमिका होती है। मकर संक्रान्ति, अमावस्या और वसन्त पंचमी कुम्भ स्नान की मुख्य तिथियाँ हैं। इस अवधि में प्रयाग में लगभग एक माह तक संगम क्षेत्र में विशाल मेला लगता है। इस विशाल मेले में विश्व के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से आए हुए साधु- संतो एवं धार्मिक व्यक्तियों का अद्भुत समागम होता है। इस कुम्भ मेला में अनेक सम्प्रदाय साधु- संतो और भिन्न-भिन्न जाति धर्म आदि के लोग एक स्नान जप तप आदि करते हैं। मेला क्षेत्र एक विशाल नगर के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिसमें समूचे भारत के एक लघु रूप का दर्शन किया जा सकता है। मेले के दौरान यहाँ सर्वत्र त्याग, तपस्या, सामाजिक : एवं धार्मिक सहिष्णुता तथा लोक-कल्याण की भावना से युक्त वातावरण व्याप्त रहता है। इससे जन-जन में एकता एवं समता की भावना उत्पन्न होती है। यहाँ अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, राजा-रंक सभी आपसी भेदभाव को भुलाकर एक ही तट पर स्नान करते हैं, जिससे उनके मन एवं शरीर की शुद्धि होती है।

कुम्भ महापर्व पर आयोजित विशाल मेला भारत का सबसे बड़ा धार्मिक एवं सांस्कृतिक समारोह है, जिसमें भाग लेने के लिए देश के सभी भागों के निवासी उत्साह-पूर्वक आते हैं। इनके साथ ही उनकी विविध क्षेत्रीय सांस्कृतियों का भी यहाँ परस्पर समन्वय होता है। इससे राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता पुष्ट होती है। इसलिए राष्ट्रीय एकता के दृष्टिकोण से प्रयाग का कुम्भ पर्वोत्सव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

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