संस्कार ________ ◆जहाँ सम्मान नहीं: वहां जाने से होता है 'श्री'-हत
जीवन में भौतिकता को ही प्रमुख लक्ष्य बना लेना प्रायः घातक होता है, क्योंकि भौतिक वस्तुएं जब तक प्राप्त नहीं होती हैं, तब तक उसके के प्रति आकर्षण बना रहता है। जैसे ही इच्छित वस्तुएं मिल जाती हैं तो फिर उसका आकर्षण खत्म हो जाता है और किसी अन्य वस्तु के प्रति आकर्षण शुरू होने लगता है। फिर तो यह सिलसिला अंतहीन होने लगता है । एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि भौतिक वस्तुओं की भरमार हो जाती है। कुछ वस्तुएं बिना इस्तेमाल के खराब होने लगती हैं, जबकि इन वस्तुओं को पाने के लिए अनर्गल ढंग से पैसे जुटाने से भी परहेज नहीं होता। जब भौतिक वस्तुओं की अधिकता होने लगती है तो घर-परिवार के सदस्य आलसी होने लगते हैं, घर-परिवार के लोगों के मन में यह बैठ जाता है कि
वे जब जो वस्तु चाहेंगे, मिल ही जाएगा । जब बिना परिश्रम के सभी वस्तुएं उपलब्ध होने लगती हैं तो आदतें भी खराब होती हैं तथा बहुत सारे लोग झूठी खुशामद कर निकटता बना लेते हैं। उनकी दृष्टि स्वार्थपूर्ण होती है तथा संग्रहित वस्तुओं और पैसे को हथियाने (हासिल करने) की कोशिश करते हैं। समाज के स्वार्थी लोगों की वाहवाही से अहंकार उत्पन्न होने लगता है।
ऐसा ही अहंकार त्रेतायुग में रावण को भी हो गया था। शक्ति अर्जित कर वह सिर्फ भौतिक वस्तुओं के संग्रह में ही लगा रहता था। 'पूरी लंका सोने की थी' का आशय ही झलक रहा कि भौतिक संसाधनों की प्रचुरता थी। छल एवं बल से उसने देवाधिदेव शिव द्वारा माता पार्वती के लिए बनाई लंका हासिल की। जिसे शिल्प के देवता विश्वकर्मा एवं रावण के सौतेले भाई कुबेर ने बनवाई थी। इस लंका को प्राप्त करने के लिए उसने अपने ही आराध्य शिव के साथ छल तो किया ही, साथ ही सौतेले भाई कुबेर पर भी आक्रमण किया। वह भगवान शिव की उपासना से प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करने लगा। शुभ कार्यों में उसका मन नहीं लगता था एवं सारे संस्कारों का परित्याग कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि वह समूची लंका से ही नहीं बल्कि अपने जीवन से हाथ धो बैठा।
ऐसी ही स्थिति इंसान की भी होती है। कोई अवसर का लाभ उठाकर तथा धोखा एवं झूठ बोलकर किसी असहाय व्यक्ति का हिस्सा लेता एवं हड़पता है तो साथ में उस असहाय व्यक्ति की बद्दुआएं भी छीनने वाले व्यक्ति तक साथ जाता है, फिर जिस शख्स ने भी इस तरह की हरकत की, उसके घर में किसी न किसी तरह की परेशानियां भी शुरू होने लगती है। घर से संस्कार गायब होने लगते हैं। धोखे से धन कमाने वाले के आश्रित सदस्य तक उसके नियंत्रण से बाहर ही नहीं होने लगते हैं बल्कि अपमान तक करने लगते हैं। ऋषियों- मनीषियों का यह कथन शत प्रतिशत सही है कि दुआओं और बद्दुआओं दोनों में बड़ी शक्ति होती हैं। इनसे तरंगें निकलती हैं। कोई नफरत से देखता है तो आंखों से निकलने तरंगें घातक असर डालने लगती हैं, इसीलिए 'आवत ही हरषे नहीं नैनन नहीं सनेह, तुलसी वहां न जाइए कंचन बरसे मेघ' चौपाई शत प्रतिशत सही है। नफरत होने पर शरीर के हार्मोन्स बदलने लगते हैं और शरीर के इस बदलाव से बने केमिकल की तरंगों से वीपी, शूगर, किडनी आदि पर असर पड़े बिना नहीं रह सकता, जबकि स्नेह से जब कोई देखता है तब शरीर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ने लगता है। माता-पिता स्नेह से छोटे बच्चों को देखते एवं स्पर्श करते हैं तो बच्चे पर उसका पॉजिटिव असर पड़े बिना नहीं रह सकता।
प्रायः अति कीमती एवं पौष्टिक खाद्य पदार्थ का सेवन करने, लक्ज़री ढंग से जीवन जीने एवं धर्म-कर्म में लगकर धर्माधिकारियों का आशीर्वाद तक लेते रहने वाले सुकून की जिंदगी नहीं जी पाते और सब कुछ रहते हुए परेशान रहते हैं।इसलिए जीवन में अनीतिपूर्वक धन और वस्तु हासिल नहीं करना चाहिए।
◆सलिल पाण्डेय, मिर्जापुर।
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