औपनिवेशिक धारणा के दबाव में मद्रास के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन को इतिहास में नहीं मिल सका उचित स्थान: प्रो० क्रिस्टू दास

Sep 26, 2024 - 21:03
Sep 26, 2024 - 21:26
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औपनिवेशिक धारणा के दबाव में मद्रास के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन को इतिहास में नहीं मिल सका उचित स्थान: प्रो० क्रिस्टू दास

राष्ट्रीय संगोष्ठी के तकनीकी सत्र का हुआ आयोजन 

दिनांक:26.09.2024

हिन्द भास्कर, गोरखपुर।

दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में इतिहास विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के तकनीकी सत्र महत्वपूर्ण रहे।

दूसरे दिन के प्रथम तकनीकी सत्र में जेएनयू से आए प्रोफेसर क्रिस्टू दास ने अपने उद्बोधन में मद्रास प्रेसीडेंसी के क्रांतिकारी आंदोलन पर चर्चा की. उन्होंने कहा कि औपनिवेशिक धारणा के दबाव में मद्रास के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला. उन्होंने वाचीनाथन अय्यर द्वारा तिरुनलवेली के कलेक्टर रॉबर्ट ऐश की हत्या एवं चिंदबरम पिल्लई की स्वदेश मित्रम अखबार की राष्ट्रवादी पत्रकारिता के माध्यम से क्रांतिकारी आंदोलन की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को शोधार्थियों से साझा किया.

द्वितीय तकनीकी सत्र में विविध महाविद्यालय व विश्वविद्यालय के शिक्षकों व शोधर्थियों के द्वारा कुल ग्यारह शोध पत्रों को पढ़ा गया. इस सत्र की अध्यक्षता प्रोफेसर भुवन झा, दिल्ली विश्वविद्यालय, संचालन डा.सर्वेश शुक्ल, विधि विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय और प्रतिवेदन डा.रितेश्वर तिवारी, जे. पी . विश्वविद्यालय, छपरा ने किया ।

इस सत्र में पहला पर्चा डा.सर्वेश शुक्ल का था. इन्होंने 'क्रांतिकारी आन्दोलन की वैचारिकी और गीता दर्शन' पर पत्र पढ़ा. जिसमें भारत की सनातन अजेय संस्कृति से भारतीयों को सदा प्रेरणा मिलती रही. उसी क्रम में अरविंदो ने ऋग्वेद और भगवद्गीता के निष्काम कर्म योग को क्रांतिकारियों के प्राणवायु के रूप में बताया. और यही आदर्श लेकर अन्याय के प्रतिकार करने हेतु हिंसा को अपना धर्म बना लिया.

अन्य और पर्चे प्रांजल बरनवाल का 'रिवोल्यूशनरी मुवमेंट और लंदन के श्याम जी कृष्ण वर्मा' विषय पर पढ़ा.

डॉ.अभिषेक शुक्ल, सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग ने 'स्वतंत्रता संघर्ष का प्रतिबंधित साहित्य' विषय पर शोध पत्र प्रस्तुत किया. उन्होंने अपने पत्र में ऐतिहासिक व साहित्यिक सन्दर्भ के आधार पर प्रतिबंधित साहित्य के दायरे को बड़ा करके देखने की बात की. बालमुकुंद गुप्त के 'शिवशम्भू के चिठ्ठे' का रोचक उदाहरण दिया.

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