छठ पूजा प्रकृति की पूजा आस्था निष्ठा समर्पण साधना का अद्भुत पर्व
श्याम कुमार झा
सम्पूर्ण बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के कुछ हिस्सों का सर्वप्रमुख पर्व छठ पूजा का व्रत लोक आस्था का एक ऐसा त्यौहार है, जिसकी तुलना पूरे देश में शायद ही किसी अन्य व्रत या त्यौहार से की जा सकती है! इसमें एक ओर जहांँ समर्पण, निष्ठा, साधना है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति की उपासना भी इस रूप में की जाती है कि वह जैसे हमारे जीवन का हिस्सा हो। छठ पूजा में स्त्रियांँ दो चरणों में उपवास करती हैं। प्रथम चरण में 12 घंटे के उपवास के बाद संध्या वेला में खरना की पूजा करने के पश्चात् वे खीर के रूप में खरना का प्रसाद ग्रहण करती हैं। वहीं उसके अगले दिन दूसरे चरण में लगभग छत्तीस घंटे की निर्जल साधना के बाद प्रातःकालीन सूरज को अर्घ्य देने के बाद वे प्रसाद के रूप में आहार ग्रहण करती हैं। तीन दिन के इस नियम और निष्ठा के बंधन में छोटे बच्चों से लेकर सभी परिवारजनों की समान सहभागिता होती है, जो इस व्रत के पवित्र परिवेश को बनाए रखने में अपना योगदान देते हैं।
छठ व्रत कब से मनाया जा रहा है इसका कोई सटीक प्रमाण तो नहीं मिलता, लेकिन इसके पीछे कई अवान्तर कथाएंँ हैं। ऐसा कहा जाता है कि कार्तिकेय की पत्नी षष्ठी मांँ की पूजा इस व्रत में की जाती है । षष्ठी का ही अपभ्रंश रूप छठी है। दूसरा अभिमत यह भी है कि चूंँकि इस व्रत का पहला अर्घ्य षष्ठी तिथि को भगवान सूर्य को अर्पित किया जाता है, इसलिए षष्ठी तिथि से भी इसे "छठ" और "छठी" व्रत का नाम मिला। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि छठी कोई स्त्री नहीं है; इस व्रत में मूलतः सूर्य की पूजा की जाती है, जिनकी रश्मि से सम्पूर्ण मानवता को जीवनी शक्ति मिलती है।
छठ व्रत की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें संध्याकालीन और प्रातःकालीन दोनों ही सूर्य की उपासना की जाती है। संध्याकालीन सूर्य अवनति जबकि प्रातःकालीन सूर्य उन्नति के प्रतीक हैं। यह पर्व जीवन की समृद्धि और विपन्नता दोनों रूपों को समान भाव से ग्रहण करने का संदेश देता है। इसलिए कहा जाता है कि उदित सूरज की उपासना तो सभी करते हैं, किन्तु अस्त होते सूर्य की उपासना केवल छठ पूजा में की जाती है। यह उपासना इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति को सुख और दुख दोनों ही स्थितियों का सम्मान करना चाहिए। यही जीवन जीने का आदर्श मार्ग है।
परिवार के सभी सदस्य उन्नति के लिए भगवान सूर्य से प्रार्थना करते हैं। यह व्रत ऐसे समय में होता है जब खरीफ की फसल तैयार हो रही होती है और रबी की बुआई प्रारम्भ होती है। छठ पूजा में जो प्रसाद चढ़ाए जाते हैं, वे सभी वस्तुएंँ प्रकृति से ही हमें प्राप्त होती हैं, जैसे गेहूं या जौ का आटा, जिसे गुड़ में मिलाकर गाय के घी से ठेकुआ बनाया जाता है। मिट्टी के चूल्हे और आम की लकड़ी का प्रयोग कर इस प्रसाद को अत्यंत निष्ठा के साथ बनाया जाता है। कार्तिक माह में उपलब्ध सभी फल जैसे नारियल, मौसमी, केला, गन्ना आदि का प्रयोग इसमें किया जाता है।
छठ व्रत में बाजार का भी बड़ा महत्व होता है क्योंकि इस व्रत के लिए लगभग 50 प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता होती हैं। इन वस्तुओं के क्रय-विक्रय से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी लाभ होता है। लोग अपने खेत में उपजे फल जैसे केले, नारियल, नींबू आदि बेचकर अन्य वस्तुएँ खरीदते हैं और परिवार के लिए छठ व्रत के लिए आवश्यक सामग्री जुटाते हैं। इस प्रकार इस व्रत में आर्थिक और व्यापारिक गतिविधियाँ भी होती हैं।
छठ पूजा को प्रकृति की पूजा इसलिए कहा जाता है कि इसमें प्रयुक्त लगभग सभी पदार्थ किसी न किसी रूप में प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: प्रकृति से हमें प्राप्त होता है। कृत्रिम पदार्थों का प्रयोग इस व्रत में प्रायः वर्जित है। अभी नए रिवाज के अनुसार बाजार में निर्मित मिठाइयों का प्रयोग भी छठ पूजा में होने लगा है, लेकिन परम्परागत रूप से होने वाली छठ पूजा में बाजार में निर्मित किसी भी पदार्थ का प्रसाद के रूप में प्रयोग प्रायः नहीं होता है।
छठ व्रत के सभी रीति-रिवाज और परम्पराएँ प्रकृति के करीब हैं। छठ व्रत करने वाले अपने पूर्वजों की परम्परा को संभालते हुए इस व्रत को श्रद्धा और निष्ठा के साथ करते हैं। छठ के प्रसाद को विशेष रूप से घर की बेटियों तक भेजा जाता है, जिससे पारिवारिक और मातृत्व का बंधन मजबूत होता है। यह व्रत समाज और परिवार के सभी सदस्यों को जोड़ने का कार्य करता है।
आश्विन माह में दुर्गा पूजा के बाद से ही कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को होने वाले छठ व्रत की तैयारी में पूरा परिवार लग जाता है। लोग दूर-दूर से इस व्रत में सम्मिलित होने के लिए आते हैं। इस अवसर पर पारिवारिक प्रेम और मेल का ऐसा दृश्य देखने को मिलता है जो पूरे वर्ष में शायद ही कहीं और मिलता हो। छठ केवल एक व्रत नहीं, बल्कि मिलन, प्रकृति की उपासना और समर्पण का पर्व है। इसमें लोक आस्था, धर्म और अध्यात्म का ऐसा मिलन है जो दर्शकों की दृष्टि पर निर्भर करता है। हमारे पूर्वजों ने इस परम्परा की स्थापना की, जो आज भी बिना किसी परिवर्तन के वैसे ही चल रही है।
छठ व्रत के सम्पन्न होने के बाद सभी परिजन व्रत का प्रसाद ग्रहण करते हैं और उस प्रसाद को लेकर अपने-अपने गंतव्य को इस संकल्प के साथ प्रस्थान करते हैं कि अगले वर्ष फिर से सभी लोग एक स्थान पर एकत्रित होंगे और पारिवारिक समरसता को बनाए रखते हुए सम्मिलित रूप से इस व्रत में सहभागी होंगे। निश्चित रूप से यह व्रत केवल एक उपासना नहीं, केवल पूजा नहीं, मानवता का एक ऐसा सम्मिलन है, जिसमें ईर्ष्या- द्वेष को अपने मन से दूर रख भगवान सूर्य के प्रति आस्था और समर्पण के द्वारा निष्कलुष भाव से सभी अपने और अपने पूरे समाज की समृद्धि की कामना करते हैं। लोक आस्था का ऐसा समागम अन्यत्र शायद ही देखने को मिले। इसलिए आज पूरी दुनिया और विश्व के कोने-कोने में रहने वाले भारतवंशी, जिनके समाज में छठ व्रत की परम्परा नहीं भी है, वे भी समस्त बिहार वासियों द्वारा मनाए जाने वाले लोक आस्था के इस महान पर्व का सम्मान और आराधना करते हैं।
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