श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन सम्पूर्ण संतों के मार्गदर्शन और नेतृत्त्व में चला
श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन सम्पूर्ण संतों के मार्गदर्शन और नेतृत्त्व में चला

हिन्द भास्कर:- यद्यपि श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति के लिए संघर्ष एवं आन्दोलन उसी दिन से प्रारम्भ हो गया था जब बाबर के सिपहसलार मीर बाक़ी ने इसे ध्वस्त कर ढांचे का निर्माण किया| इतिहास के पन्नों में श्रीराम जन्मभूमि के लिए किये गए छिहत्तर संघर्ष एवं अगणित बलिदान की एक लम्बी गाथा है, परन्तु वर्त्तमान चरण के जिस आन्दोलन का सूत्रपात सन् 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन की प्रथम धर्म संसद से हुआ, उसके प्रमुख सूत्रधार अशोक सिंहल बने |
सामान्य रूप में देखा जाये तो यह आन्दोलन एक आक्रान्ता द्वारा तोड़े गए मंदिर के पुनर्स्थापना का आन्दोलन है, लेकिन अशोक सिंहल की दृष्टि में इस आन्दोलन का अत्यंत व्यापक और दूरगामी महत्त्व था| अशोक सिंहल के शब्दों में “श्रीराम जन्मभूमि के लिए चलाया गया जनजागरण अभियान भारत के इतिहास का एक अद्वितीय अध्याय है| यह आन्दोलन केवल एक विदेशी आक्रान्ता द्वारा तोड़े गए मंदिर को पुनः भव्य स्वरूप प्रदान करने तक ही सीमित नहीं है, इसके दूरगामी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक महत्व हैं |
हमने सन् 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी, किन्तु आज भी हम अपनी वैचारिक एवं सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रक्रिया में हैं| यह भारत की केवल राजनीतिक रूप से प्राप्त स्वतंत्रता को सांस्कृतिक स्वतंत्रता में परिवर्तित करने का आन्दोलन है|” श्री राम जन्मभूमि आन्दोलन यदि गंभीरतापूर्वक विश्लेषण किया जाए तो योजना बनाते समय उपरोक्त उद्देश्यों का पग-पग पर ध्यान दिया गया और समान्य जनमानस को एक विशेष सन्देश देनें का प्रयत्न भी किया गया| श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के पीछे भले ही विश्व हिन्दू परिषद् की महत्वपूर्ण भूमिका रही हो, लेकिन सम्पूर्ण आन्दोलन संतों के मार्गदर्शन और नेतृत्त्व में चला|
भारत में उद्भूत सभी मत,पंथ एवं संप्रदाय के धर्माचार्यों नें इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया| पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक लोक-जागरण का ऐसा ज्वार खड़ा हुआ, जिसने अशोक के इस उक्ति को सिद्ध कर दिया कि “भारत शासकों के साम्राज्य से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साम्राज्य से संचालित होता है|” इस आन्दोलन ने संतों के साथ समाज को और समाज के साथ संतों को जोड़ने का अद्भुत कार्य ही नहीं किया अपितु परतंत्रता के काल-खंड में सुप्त पड़ी आध्यात्मिक -धार्मिक भावना में नवचेतना के संचार का भी कार्य किया|
श्री राम-जानकी रथयात्रा हो, श्रीराम ज्योति यात्रा हो या श्रीराम पादुका पूजन यात्रा, इन यात्राओं के माध्यम से अयोध्या के श्रीराम जन्म स्थान पर विदेशी आक्रान्ता द्वारा किये गए अत्याचार का बोध कराया गया| राष्ट्र नायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्म स्थान पर स्थापित मन्दिर को तोड़ने एवं राष्ट्र को अपमानित करने के कुकृत्य को उजागर करने के साथ ही साथ भारतीय समाज में श्रीराम के सांस्कृतिक एवं सामाजिक महत्त्व का भी पुनर्स्मरण कराया गया |
देश के कोने-कोने के दो लाख पचहत्तर हजार ग्रामों-नगरों से पूजित होकर अयोध्या लाई गई शिलाओं से न केवल भव्य श्रीराम मंदिर निर्माण की भावना और प्रतिबद्धता व्यक्त हुई अपितु राष्ट्रीय एकात्मता का भी प्रचंड संचार हुआ | सम्पूर्ण देश से पूजित शिलाओं और जन सामान्य के योगदान से बनाया गया श्रीराम जन्मस्थान मंदिर से राष्ट्र के स्वाभिमान की पुनर्प्रतिष्ठा ही नहीं, राष्ट्र की एकात्मता भी सुदृढ़ होगी |
श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन का दृश्य देखकर भारत की राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करनेवाला वामपंथी और तथाकथित सेक्युलर खेमा उस समय अवाक् रह गया जब भाषा, क्षेत्र, जाति आदि के सभी बंधनों को तोड़कर समग्र भारत राष्ट्र एक साथ ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष कर उठा| अशोक सिंहल के शब्दों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारत की राष्ट्रीयता के नायक हैं । श्रीराम का चरित्र राष्ट्र के चरित्र का दर्पण है, वे केवल पूज्य ही नहीं अनुकरणीय हैं| इसलिए उनके चरित्र से जुड़ा प्रत्येक स्थान केवल पूज्य ही नहीं राष्ट्र की अस्मिता का केंद्र बिंदु है, चाहे वह श्रीराम जन्मभूमि हो या राम सेतु|
श्रीराम जन्मभूमि के शिलान्यास की प्रथम शिला कामेश्वर चौपाल द्वारा रखी गयी, जो हिन्दू समाज में व्याप्त जातिवाद और छुआछूत के परिमार्जन की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था| अशोक की स्पष्ट मान्यता थी कि ‘सामाजिक समरसता के बिना संगठित समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता| निषादराज को गले लगाने वाले, सबरी के जूठे बेर खानेवाले, बनवासियों को अपने सहोदर की तरह स्नेह करनेवाले श्री राम का चरित्र ही सामाजिक समरसता का प्रेरक है|” श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन नें सामाजिक समरसता का अनूठा प्रतिमान स्थापित किया|
इस आन्दोलन ने समाज को यह अनुभूति कराया कि स्वतंत्रता के पश्चात् इतने वर्ष बीत जाने पर भी हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के स्थान आक्रान्ताओं के चंगुल से मुक्त नहीं हो सके इसका प्रमुख कारण है एकता की कमी, राष्ट्रीय अस्मिता की विस्मृति और राष्ट्र के प्रति गौरव की अनुभूति का अभाव, जिसके परिणामस्वरूप हम इस अपमानास्पद स्थिति से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं | भारत के राजनीतिज्ञ क्षेत्र, जाति और भाषा सभी मुद्दों पर चर्चा करते हैं, परन्तु राष्ट्रीय मानबिंदुओं और आस्था के केन्द्रों पर चर्चा करना उनके लिए घोर सांप्रदायिक है|
अशोक सिंहल कहा करते थे “ आज हिन्दू समाज गहरी निद्रा में है, उसे सेक्युलरवाद की एनेस्थिशिया दी जा रही है, इसलिए उसे अपने अंगों के कटने का ज्ञान नहीं हो रहा है| हमारे आस्था के केन्द्रों को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है| हमारे समाज को विभाजित कर फिर उसे दुर्बल कर, हिन्दू समाज पर सांस्कृतिक आक्रमण की इन शक्तियों की आदत हो गयी है| हमारे लोग राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत धर्म एवं राष्ट्रीय अस्मिता के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, लेकिन आज हिन्दू समाज एकजुट होकर खड़ा हो जाये तो किसी की हिम्मत नहीं कि उस पर आक्रमण करे|
श्रीराम जन्मभूमि का आन्दोलन अविभाज्य रूप से हिन्दू समाज को खड़ा करने का एक महा अनुष्ठान है और यह अनुष्ठान सेक्युलरवाद की एनेस्थिशिया से समाज को मुक्त करेगा|” वास्तव में इस आन्दोलन ने समाज के चिंतन और राजनीतिक सोच को बदल दिया| यह आन्दोलन संतों के नेतृत्त्व में संचालित हो रहा था और अशोक सिंहल इस आन्दोलन के सूत्रधार थे, लेकिन संघर्ष काल का ऐसा कोई भी अवसर नहीं रहा जब अशोक कारसेवकों के साथ अग्रिम पंक्ति में न खड़े हों|
30 अक्टूबर सन् 1990 में कारसेवा के समय उनके ललाट से प्रवाहित होनेवाली रक्त की धारा वाला चित्र हो या शिलादान के समय भगवा वस्त्र में पुलिस से संघर्ष का, आज भी हिन्दू समाज के अन्दर अपने आदर्श, श्रद्धा और स्वाभिमान के लिए संघर्ष का उत्साह भर देता है| भारत के इतिहास में श्रीराम जन्मभूमि का आन्दोलन राष्ट्रीय पुनर्जागरण का एक अद्वितीय आन्दोलन था| यह आन्दोलन वास्तविक अर्थों में एक राष्ट्रीय आंदोलन था, जिसमें भाषा, क्षेत्र, जाति आदि की सभी अड़चनों को तोड़कर समग्र भारत राष्ट्र खड़ा हो गया था।
किसी भी राष्ट्र के लिए ऐसे अद्भुत क्षण बहुत ही कम आते हैं, जब समाज अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु अपने आदर्श के लिए इस प्रकार खड़ा हुआ हो। अशोक श्रीराम जन्मस्थान पर मंदिर निर्माण को इस आन्दोलन का प्रथम चरण मानते थे,परन्तु यह आंदोलन अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करेगा जब संपूर्ण भारत श्रीराम के आदर्शों पर चलते हुए एक आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित होगा। जब इस राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक अपने राष्ट्र की अस्मिता, आदर्श एवं मानबिंदु के प्रति जागरुक रहते हुए अपना आचरण करेगा।
जब इस देश में कोई अशिक्षित वंचित, भूखा एवं लाचार नहीं होगा। जब इस देश के शौर्य एवं संगठन की अदभुत शक्ति को देखकर कोई परकीय भारत की तरफ वक्र दृष्टि से देखने का साहस नहीं करेगा। अशोक सिंहल की बातें आज यथार्थ सिद्ध हो रही हैं | अब विद्वानों के विश्लेषण द्वारा इस आन्दोलन के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अनेक पहलू उभर कर सामने आ रहे हैं और भारत की जनचेतना पर इसके प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं| यह आन्दोलन युगों-युगों तक संस्कृति, आदर्श एवं राष्ट्रीय चेतना की प्रेरणा प्रदान करता रहेगा| (लेखक- अरुंधती वशिष्ठ अनुसन्धान पीठ प्रयागराज के निदेशक हैं एवं अशोक सिंहल जी के सहयोगी रहे हैं)
What's Your Reaction?






